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________________ सांख्य दर्शन आत्मा को नित्य मानता है । उसके अभिमतानुसार आत्मा सदा सर्वदा एक रूप रहता है। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं हैं, प्रकृति के हैं ।18 सुख-दु:ख और ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मतत्व के नहीं हैं। आत्मा को तो सांख्य दर्शन में स्थायी, अनादि, अनन्त, अविकारी नित्य चित्स्वरूप और निष्क्रिय माना है। तात्पर्य यह है कि सांख्य दर्शन एकान्ततः नित्यवाद को मानता मीमांसक दर्शन के मतानुसार आत्मा एक है परन्तु देह आदि की विविधता के कारण वह अनेकविध प्रतीत होता है ।16 नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और दीपक को अनित्य मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अभिमतानुसार जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते हैं किन्तु विशिष्ट कारणों से उनकी उत्पत्ति होती है । नित्यानित्य संबन्ध में बौद्ध दर्शन की निराली दृष्टि है । बुद्ध से आत्मतत्व के संबन्ध में किसी जिज्ञासु ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुवे पूछा । तब उसका उत्तर न दे कर वे मौन रहे । मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो मैं शाश्वतवादी कहलाऊँगा और अगर कहूँ कि आत्मा नहीं है तो उच्छेदवादी कहलाऊँगा-इसलिए इन दोनों के निषेध के लिए मैं मौन रहता हूँ । किन्तु जैन दर्शन में नित्यानित्य के संबंध में जो चिंतन किया गया है वह अनूठा है, अपूर्व है। वह स्वतंत्र चिंतन है, स्वतंत्र निरूपण पद्धति है । इस दर्शन की प्रतिपादन पद्धति सापेक्षतापरक है। यह नित्यानित्य के एकान्तों का निरसन कर सत्य के अनेकान्त सापेक्ष धर्मों को स्वीकार कर समन्वय कर देता है। यही उसकी सर्वोपरि असाधारण विशेषता है। विविधरूपता आती रहती है, एतदर्थ लोक अनित्य है अर्थात् अशाश्वत है।18 एक समय की बात है कि प्रभु महावीर से मिलने स्कन्दक ऋषि आये। वन्दना करके विनम्र भाव से बीले कि प्रभु लोक सान्त है या अनन्त है । प्रभु ने उत्तर दिया-स्कन्दक लोक को चार प्रकार से जाना जाता है। द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से लोक है और सांत है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात योजन कोटा-कोटि विस्तार और असंख्यात योजन कोटा-कोटि परिपेक्ष प्रमाणवाला है। इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है। काल की अपेक्षा से कोई काल ऐसा काल नहीं रहा जब लोक न हो, अतः लोक ध्रुव है । नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्ष पर्याय, गंध पर्याय, रस पर्याय और स्पर्श पर्याय हैं । अनन्त संस्थान पर्याय हैं । अनन्त गुरु-लघु पर्याय हैं। अनन्त अगुरु लघु पर्याय है, उसका कोई अन्त नहीं है । एतदर्थ लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, काल की अपेक्षा से अनन्त है। भाव की अपेक्षा से अनन्त है । जीव सान्त है या अनन्त है इस प्रश्न का समाधान करते हुवे प्रभु महावीर ने कहा-"जीव सान्त भी है और अनन्त भी है। द्रव्य की अपेक्षा से एक जीव सान्त है । क्षेत्र की दृष्टि से भी जीव असंख्यात प्रदेशयुक्त होने के कारण सान्त है। काल की दृष्टि इसी प्रकार लोक नित्य है या अनित्य है, इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण प्रभु महावीर ने कहा-“जमाली ! लोक नित्य भी है और अनित्य भी है। क्योंकि एक भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब लोक न हो अतएव लोक नित्य है। लोक का स्वरूप सदा एक सा नहीं रहता, अतएव वह अनित्य भी है। अवसपिणि और उत्सपिणि काल में उत्थान पतन होता रहता है । कालक्रम से लोक में १८. सासए लोए जमाली-जत्र कयाविणासीनो कथाविणभवति । ण कथाविन भावेस्सई-भुवि च भवई य भविस्सई य ।। धुते णि तिए सासए अक्खए भव्वए अवहिए किच्चे असासण लोएजमाली। ज ओ ओसप्पिणी भविता उसप्पिणी भवई ।। -भगवती सूत्र ८।३३।३८७ १९. एवं खलु भए खन्दया । चउबिहे लोए पण्णते। तं जहा दव्वओ खेतओ कालओ भावओ। दवओ णं एमे लोए स अंते । खेतओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणः कोटा कोडिओ जायाम विवखंमेण असंखेज्जाओ जोयण कोटा कोडिओ परिथेववेणं पण्णत्ते । अत्थि पुण स अंते ।। कालाओणं लोए ण कयाविन आसि न कयावि न भवति न कयावि न भविस्संति । भविस्य भवति य भविस्सई य धुवे णितिए सामते अक्खए अब्बए अवट्टिए पिच्चेणात्थि त्वेणात्थि पुण से अंते । भाव जो णं लोए अणंता बणपज्जवा, गंध पज्जवा रसपवज्जा फास पज्जवा अणंता संगण पज्जवा अणंता गस्य लहयपज्जवा अणंता अगुरु लहुए पज्जवा नत्थि पण से अन्ते । से चं खन्दगा। दवओ लोए स अंते खेतओ भोए स अन्ते कालनो लाए अणंते भाव तो लोए अणन्ते । -भगवती सूत्र २।१।९० १३. सांख्यकारिका ६२ १४. सांख्यकारिका ११ १५. अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुण सूक्ष्मः आत्मा कपिल दर्शने ।। -षड्दर्शन समुच्चय ।। १६. एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । १७. अस्तीति शाश्वत, गाही, नास्तिव्युच्छेद दर्शनम् । तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे, ना श्रीयते विचक्षणः ।। . -माध्यमिक कारिका १८।१० राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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