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________________ को कष्ट पहंचायेंगे । जो जीव धार्मिकवृत्तियुक्त हैं, उनका बलवान होना श्रेष्ठ है क्योंकि वे बलवान होंगे तो अधिक जीवों को सुख देगें। 10 समग्र ज्ञानों की विषयभूत वस्तु अनेकान्तात्मक होती है । अतएव वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा है। जिसमें अनेक अर्थभाव सामान्य विशेष गुण पर्याय रूप से पाये जाये, उसको अनेकान्त कहते हैं। और अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा के द्वारा प्रतिपादित करने वाला सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है। भगवान ने अनेकान्त दृष्टि से देखा और स्यावाद की भाषा में उसका निरूपण किया। एतदर्थ भगवान की वाणी स्याद्वादमयी होती है । जैन दर्शन में प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षा दृष्टि से दिया गया है । सत्य की सापेक्षिता से लेकर पदार्थ के आंशिक पहलुओं पर दृष्टि डाली गयी है । वस्तु के पूर्व स्वरूप को सामने रख कर उनके विविध अंशों एवं रूपों का आकलन संकलन कर उनका अलग-अलग निर्वचन किया गया है। छोटे से दीपक से लेकर व्यापक व्योम तक समग्र पदार्थ अनेकान्त मुद्रा से अंकित हैं।' इसलिए कोई भी वस्तु स्याद्वाद की सीमा से बाहर नहीं है । सामान्य रूप से स्याद्वाद और अनेकान्त का स्वरूप जान लेने के पश्चात् स्याद्वाद के प्रकाश में प्रकाशित होने वाले कपितय उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। श्रमणोपासिका जयन्ति एक बार भगवान से पूछती है-“भगवन सोना अच्छा है या जागना" । उत्तर में भगवान ने कहा"कितनेक जीवों का सोना अच्छा है और कितनेक जीवों का जागना अच्छा है।" जयन्ति के अन्तर्मानस में पुनः प्रश्न उबुद्ध हुआ-भगवन् ! यह कैसे ? प्रभु महावीर ने कहा- 'जो जीव अधर्मी है, अधर्मानुग है, अधर्मनिष्ठ है, अधर्माख्यायी है, अधर्म प्रलोकी है, अधर्मपरंजन है, अधर्म समाचार है, अधार्मिक वृत्तियुक्त है, वे सोते रहें यही श्रेष्ठ है। क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। और इस प्रकार स्वपर उभय को अधार्मिक अनुष्ठान में लग्न-संलग्न नहीं करेंगे । एतदर्थ उनका सोना अच्छा है। किन्तु जो जीव धार्मिकवृत्ति वाले हैं, धर्मानुग हैं उनका तो जागना ही श्रेष्ठ है । क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। स्व-पर और उभय को धार्मिक क्रिया में संलग्न करते हैं। अतः उनका जागना ही श्रेष्ठ है।" जयन्ति- भगवन् बलवान होना श्रेष्ठ है या दुर्बल होना" प्रभु महावीर-"जो जीव अधार्मिक है यावत् अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका दुर्बल होना अच्छा है। वे बलवान होंगे तो अनेक जीवों जैन दर्शन ने सापेक्षता के आलोक में दूसरों को समझाने का दष्टिकोण प्रदान किया है। एकान्तता का निरीक्षण कर उसकी अनेकान्तता को संप्रस्तुत करता है । यह सही है कि किसी भी वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन एकान्तरूप में नहीं किया जा सकता । यह पदार्थ सत् ही है या असत् ही है, नित्य ही है या अनित्य ही है, यह एकान्तरूप में कहना भयंकर भूल है । क्योंकि वस्तु एकान्तधर्मी होती ही नहीं है । वह किसी अपेक्षा से नित्य नहीं कही जाती है तो किसी अपेक्षा से नित्य भी कही जा सकती है। नित्यानित्य-एक चिन्तन महात्मा बुद्ध ने लोक जीव आदि की नित्यता अनित्यता, सान्तता-अनन्तता आदि प्रश्नों को अव्याकृत कह कर टाल दिया ।। परन्तु आत्मा के संबन्ध में गणधर गौतम और प्रभु महावीर का एक सुंदर संवाद आगम में उपलब्ध होता है। . ___ एक समय की बात है, श्रमण प्रभु महाबोर के चरणारबिन्दु में वंदना करने के पश्चात् गणधर इन्द्रभूति गौतम ने विनम्रभाव से पूछा-"भगवान जीव नित्य है या अनित्य, प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा-"गौतम जीव नित्य भी है और अनित्य भी है।" गौतम के अन्तर्मानस में जिज्ञासा जागृत हुई कि यह किस हेतु से कहा कि जीव नित्य भी है और अनित्य भी है। उत्तर में भगवान ने कहा-“गौतम द्रव्याथिक दृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है ।"12 प्रस्तुत संवाद का अभिप्राय यह है कि द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है। द्रव्य दृष्टि का अर्थ है अभेद दृष्टि और पर्याय दृष्टि का अर्थ है भेददृष्टि । द्रव्य की अपेक्षा से जीव में जीवत्व सामान्य का कभी अभाव नहीं होता है, किसी भी अवस्था में रहा जीव, जीव ही रहेगा । वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । मूल द्रव्य के रूप में उसकी सत्ता त्रैकालिक है। जहाँ जीव द्रव्य है वहाँ उसके कोई न कोई पर्याय अवश्य होती है । जो जीव है वह विविध गतियों में विविध अवस्थाओं में परिणत होता ही है। क्योंकि वह पशु-पक्षी, स्थावर अथवा सिद्ध में से कुछ तो अवश्य होगा ही। इस प्रकार वह किसी न किसी पर्याय को ग्रहण करता रहता है । अतः पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य है तात्पर्य यह है कि जीव द्रव्यतः नित्य है और पर्यायतः अनित्य है। १०. भगवती सूत्र-१२।२।४४३ ११. मज्झिमनिकाय-चालुमालुक्यसुत्त-६३१ १२. जीवाणं भंते कि सासया असासया? गोयमा जीवासिप सासया सिप असासया । गोयमा दब्बद्द याए सासया भावद्दया ए असासया । -भगवती ७।२।२७३ ६. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरं सर्व संविदाम् । -न्यायावतार सिद्धसेन ७. अथोऽनेकान्तः अनेके अन्ता भावा अर्थाः सामान्य विशेष गुण पर्याया, यस्य सोऽनेकान्त । ८. स्याद्वाद भगवत्प्रवचनम् ।-न्यायविनिश्चयाः विवरण पृ. ३६४ ९. आदीप मात्थोम सम स्वभावं, स्याद्वादमुद्रनति श्रेदि वस्तु । तन्नित्य मैवेकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञा द्विषतांप्रलापां ।। -अन्ययोगव्ययच्छेदद्वात्रिंशिका श्लोक ५ वी.नि. सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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