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________________ निकला कि पूज्यपाद सिद्धसेनगणि से पूर्ववर्ती हैं और सिद्धसेनगणित तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवातिक से पूर्व रची गई। तत्वार्थसूत्र ६-१८ की तत्वार्थराजवातिक टीका में कहा गया है "स्यान्मतम् एकोयोगःकर्त्तव्यः" अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य इति, तन्न, किं कारणम् ? उत्तरापेक्षत्वात् । देवस्यायुषः कथमयमास्रव स्यादिति पृथक्करणम् अर्थात् स्वभावमार्दव का निर्देश पूर्ववर्ती सूत्र ६-१७ “अल्पारंभ" द्वारा करना युक्त नहीं है क्योंकि इस सूत्र ६-१८ "स्वभावमार्दवम् च" का संबन्ध आगे बताए जाने वाले देवायु के आस्रवों से भी करना है । जिस सूत्रपाठ का खंडन अकलंक ने यहां किया है, वह सूत्रपाठ तत्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति22 में उपलब्ध है। इससे यह प्रतीत होता है कि तत्वार्थभाष्य तत्वार्थवार्तिकार के सम्मुख था ही, साथ में तत्वार्थभाष्यवृत्ति भी उनके समक्ष थी, यह निष्कर्ष दो कारणों से जान पड़ता है, प्रथम यदि यह मान लिया जाय कि तत्वार्थराजवातिक से पहले केवल तत्वार्थभाष्य था और उसके आधार पर ही अकलंक ने उपरोक्त सूत्रपाठ को अयुक्त कहा है तथा सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवातिक के पश्चात् लिखी गई, ये दोनों विचार संशयात्मक प्रतीत होते हैं। क्योंकि यदि तत्वार्थभाष्यवृत्ति से पूर्व तत्वार्थभाष्य मान्य सूत्रपाठ का खंडन पाया जाता तो सिद्धसेनगणि स्वसाम्प्रदायिक भावनावश स्वपरम्परामान्य सूत्रपाठ को ही युक्त ठहराते तथा दिगम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठ को अयुक्त बताते, पर सिद्धसेनगणि ने त. सू. ६-१८ की भाष्यवृत्ति में किसी अन्य सूत्रपाट का उल्लेख तक नहीं किया है। द्वितीय, सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थसूत्र पर एक महती टीका मानी जाती है, श्वेताम्बर परम्परा में यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है, अतः तत्वार्थराजबार्तिक के रचयिता अकलंक, जो स्वपरम्परामान्य मत-स्थापना के पोषक हैं, ने सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति में उपरोक्त विरोध देखा, उसका खंडन किया और दिगंबर परम्परामान्य सूत्रपाठ के युक्त होने के कारण कहे। अत: स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व हुई। ____ का पता चलता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि अकलंक से पूर्व भी इस प्रकार का खण्डन-विषय प्राप्य था और अकलंक ने उसी के आधार पर अपनी विद्वत्ता द्वारा उसे उत्कृष्ट रूप दिया है। अतः शैली की उत्कृष्टता की दृष्टि से भी तत्वार्थराजवातिक तत्वार्थभाष्यवृत्ति से परवर्ती है। सिद्धसेनगणि स्वकथन की पुष्टि के लिये अधिकतर आगम अथवा तत्वार्थसूत्र ही उद्धृत करते हैं पर तत्वार्थराजवार्तिक में अकलंक ने तत्वार्थसूत्र के अतिरिक्त जैनेन्द्र व्याकरण, योगभाष्य, मीमांसादर्शन, युक्त्यनुशासन, ध्यानप्राभूत आदि जैन तथा जैनेतर ग्रन्थ उद्धृत किये हैं और परमतों का उल्लेख कर उनका खण्डन किया है। स्वमत समर्थन के लिये अधिक से अधिक उद्धरण देना तथा परमत को कह उसका खण्डन करना, इस . प्रकार की प्रवृत्ति की तभी आवश्यकता अनुभव होती है जब स्वमत विरोधी कथन मिलते हों अथवा स्वमत के सिद्धान्तों के खण्डन का भय हो । ऐसी प्रवृत्ति के दर्शन तत्वार्थभाष्यवृत्ति की अपेक्षा तत्वार्थराजवातिक में अधिक हैं । अतः तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्ववर्ती है। पूज्यपाद26 तथा सिद्धसेनगणिश ने तत्वार्थसूत्र ६-१४ आगत "उदय" शब्द का अर्थ "विपाक" किया है । परन्तु "अकलंक"28 तथा विद्यानन्द (१० वीं सदी) तत्वार्थश्लोकवातिककार ने "उदय" शब्द की विस्तृत व्याख्या की है । इसी प्रकार का इसी अध्याय में एक अन्य स्थल है." जहां दोनों सिद्धसेनगणि तथा अकलंक स्व-स्व टीकाओं में आस्रव के अधिकारी बताते हुए कहते हैं कि उपशान्त क्षीण कषाय के ईर्यापथ आस्रव है। सिद्धसेनगणि आगे कहते हैं कि केवली के ईर्यापथ आस्रव है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सांपरायिक आस्रव हैं। पर यहां अकलंक का कथन स्पष्टतर तथा विस्तृत है जब वे केवली के साथ 'सयोग" पद भी जोड़ते हैं अर्थात् सयोगकेवली के ईर्यापथ आस्रव हैं । अकलंक सांपरायिक आस्रव के स्थान के विषय में बताते है कि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान तक सांपरायिक आस्रव है 182 इन दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणि की अपेक्षा अकलंक विस्तृत वर्णन में विश्वास रखते हैं । अकलंक की इस २६. पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पृ. ३३२, उदयो विपाकः। २७. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग २ पृ. २९ उदयोविपाकः । २८. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५२४, प्रागुपात्तस्य कर्मणः द्रव्यादि निमित्तवशात् फलप्राप्तिः परिपाका उदय इति निश्चीयते। २९. विद्यानन्द, तत्वार्थश्लोकवार्तिक, भाग छ: सोलापुर, सन् १९६६, पृ. ५१३ ३०. तत्वार्थसूत्र ६-५ ३१. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, पृ. ९ ३२. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५०८ शैली "आकाश प्रधान का विकार है"23 सांख्य दर्शन के इस सिद्धान्त का खंडन सिद्धसेनगणि तथा अकलंक दोनों ने स्वस्वटीकाओं में किया है। पर दोनों के खण्डन करने के ढंग में अन्तर है । अकलंक द्वारा किया गया खण्डन सिद्धसेनगणि द्वारा किये गये खण्डन-कार्य की अपेक्षा स्पष्टतर है । इससे अकलंक की रचना शैली की उत्कृष्टता तथा परिपक्वता २१. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक भाग २, पृ० ५२६ २२. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, पृ० ३० २३. ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका, कारिका ३-२२ २४. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ० ४६८ २५. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. ३४० राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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