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________________ सम्पादकीय परम ज्ञानी परमात्मा श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी का शासन अविच्छिन्न गति से प्रवहमान है। इस शासन की पावनता, समग्रता एवं विश्व-कल्याण की भावना सदैव-सर्वत्र अद्वितीय रही है। श्रमण भगवन्त के संजीवनी-सम उपदेशसूत्रों में अभिव्यक्त-प्रकट स्थिति नि:संदेह प्राणिमात्र के लिए समादरणीय और समाचरणीय है। जीव-जगत् की असाधारण ज्ञातव्यता इस शासन की अपनी मौलिक और अलौकिक है; तत्त्व-व्याख्या एवं निरूपण अनन्य, अप्रतिम और शाश्वत है। कर्मवाद की अचुक-अमोघ व्यवस्था मानव-मात्र को आत्मोन्मुख करने का कल्याणकारी, उत्कृष्ट मार्गदर्शन है; दर्शन जगत् को आलोकित करनेवाली अपूर्व दार्शनिकता आश्चर्य में डालनेवाली है, अनेकान्त और स्याद्वाद की अदृप्त दीप्ति मनुज-मात्र को सत्य की खोज में प्रवृत्त करनेवाली है, नयनिक्षेपप्ररूपण भी वस्तु के यथार्थ व्यक्तित्व को समझने-समझाने में अप्रतिम-बेजोड़ सिद्ध हुआ है। योग-प्रयोग को साधनाभूमिका को खोजने में भगवन्त वर्द्धमान के प्रावचनिकों ने अनवरत-अबाध मंगलकारी पथ-प्रदर्शन किया है, ध्यानोपासना के विविध रूप- स्वरूप-निदर्शन में भी इसका चिरस्मरणीय योगदान है। जीवन-विज्ञान एवं जीवन-साधना के अन्वेषणपरक दिशाबोध ने जिन-शासन की अट-अविचल परम्परा को ज्वलन्त-जीवन्त बनाया है, विश्व को सत्य की ओर उन्मुख किया है, तथा मानव-समाज की शालीनता को समृद्ध किया है। इसी गौरवशालिनी परम्परा में उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दियों में समर्थ प्रभावक, विश्ववन्द्य, अभिधान राजेन्द्र बृहद् विश्व-कोश के प्रणेता पू.पा. गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज हुए हैं, जिनको उत्कृष्ट तपश्चर्या, त्याग और विशुद्ध क्रियापालन, ज्ञान-ध्यानमयी परमोज्ज्वल आत्मसाधना सदैव अखण्ड-अमर बनी रहेगी। पू.पा. गुरुदेव के जीवन में जिन जोवनोद्धारक गुणों ने स्थान पाया था, वे आज भी समूचे विश्व को अपनी गुणवत्ता के अपराभूत आलोक से प्रेरित कर रहे हैं। उनकी बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था के कृतित्व में श्रीमद् के इस गुण-गौरव-समृद्ध व्यक्तित्व का प्राञ्जल-प्रखर प्रतिबिम्बन हुआ है। परम पूज्य श्रीमद् का अवतरण उस युग में हुआ था जिस युग में संपूर्ण मानव-जगत् एक व्यापक कान्तिउत्क्रान्ति के दौर से गुजर रहा था। जहाँ एक ओर राष्ट्रीय क्षेत्र में अनेक देशभक्त संस्कृति-रक्षण एवं “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का नारा देकर देशवासियों में अपूर्व राष्ट्रीय चेतना का शंखनाद कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर सामाजिक, धार्मिक एवं नैतिक क्षेत्रों में त्यागिवर्ग अपने ज्ञान का प्रकाश उत्कीणित कर सदियों से व्याप्त उदासी, अन्धविश्वास और अज्ञान-अंधकार को समाप्त करने के लिए समाज में अलख जगा रहा था, उसमें नवीन प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे थे। उसकी तत्परता और लक्ष्य के प्रति अविचल दृढ़ता धार्मिक जीवन को नयी करवट और अंगड़ाई के लिए उत्साहित कर रहा था। वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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