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________________ शान्तमूर्ति उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म का निरूपण किया है। श्रमण धर्म और श्रावक धर्मं । श्रमण धर्म में महाव्रतों का पालन होता है और श्रावक धर्म में अणुव्रतों का । श्रमण धर्म का पालन करने वाले साधु क्षमाशील और परोपकारी होते हैं। उनका जीवन एक आदर्श जीवन होता है। एसा ही आदर्श जीवन था उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज का विनय-गुण आप में कर भरा हुवा था । विनोद संघवी आपका जन्म संवत् १९११ भाद्रपद कृष्णा १ को सांबूजा गांव में हुवा था । सांबूजा गांव राजस्थान राज्य के जालोर जिले की आहोर तहसील में है आपके पिता श्री बीचन्दजी राजपुरोहित थे । आपकी माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। आपका जन्म मातापिता का सुख बढ़ाने का कारण बना। माता ने इसी कारण से आपका नाम मोहन रखा। आपके माता-पिता श्री प्रमोदसूरीश्वरजी महाराज के भक्त थे । एक बार वे मोहन को साथ लेकर गुरु महाराज के दर्शनार्थ आहोर गये। बदीचन्दजी अपने मोहन का भविष्य जानने को बड़े उत्सुक थे। अतः उन्होंने महाराज से कहा - " मैं अपने मोहन का भविष्य जानना चाहता हूं । कृपया मुझे यह बताइये कि उसके भाग्य में क्या लिखा है ?" सूरिजी ने उत्तर दिया- महानुभाव, संसारी प्राणी जैसे शुभ अशुभ कर्म बांधता है वैसा ही उसका भाग्य बनता है । मोहन की भाग्य रेखा साफ यह बताती है कि यह बालक संसार के भोगों में लिप्त नहीं बनेगा, ग्यारह साल की उम्र में ही यह त्यागमार्ग का पथिक बन जायेगा । त्यागी बन कर यह स्व-पर के कल्याण में सहायक बनेगा | ६८ सूरिजी का उत्तर सुन कर बदीचन्दजी कुछ उदास से हो गये । अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उनके मन में उठने लगे । उनकी ऐसी हालत देख कर यूरिजी बोले- "फिक नयों करते हो वदी । Jain Education International तुम बड़े भाग्यवान हो । तुम्हारा पुत्र दीक्षा लेकर संसार दावानल से सन्तप्त अनेक जीवों का उद्धार करेगा । पूर्वकाल में भी अनेक महापुरुषों ने अपने बाल्यकाल में ही दीक्षा ली थी। शास्त्रकार फरमाते हैं-"जिस कुल के एक भी मनुष्य ने दीक्षा ली हो और उसका अच्छी तरह से पालन किया हो वह कुल उत्तम है। दीक्षा एक ऐसा पद है जो राजा-महाराजा और चक्रवर्ती जैसे समर्थ पुरुषों द्वारा भी स्वीकार किया गया है। सूरिजी के उपदेश से प्रभावित हो कर बदीचन्दजी ने अपना मोहन सूरिजी को सौंप दिया। मोहन भी साधु संगति में ही रहना चाहता था। उसने अपने पिता से साफ कह दिया था - " मैं तो अब गुरु सेवा में ही रहना चाहता हूं, उसी में मुझे मेरा कल्याण नजर आता है।" अब मोहन का अभ्यास शुरू हुवा । प्रारम्भ में उसकी बुद्धि कुछ मंद थी पर गुरुकृपा ने काम कर दिया । मोहन ने लिखना पढ़ना सीख लिया और पंच प्रतिक्रमण, चार प्रकरण, भाष्य और कर्मग्रंथों का भी अध्ययन कर लिया। इसी विद्याभ्यास के साथ-साथ आपने नम्रता, विनय दाक्षिण्य, वाक्यमाधुर्य आदि गुणों का विकास भी हुवा | ' श्री प्रमोदसूरिजी महाराज वृद्ध हो चले थे और उनका अधिकांश समय साधु नियमों के पालन में और ध्यान में व्यतीत होता था । अतः मोहन की पढ़ाई ठीक से नहीं होने पा रही थी। इसलिए उन्होंने मोहन को विशेष विद्याभ्यास के लिए श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज के पास भेज दिया। मोहन ने श्रीमद् के पास साल भर में चन्द्रिका का पूर्वार्द्ध और कुछ प्रकरण ग्रंथों का अध्ययन कर लिया । सूरिजी महाराज के उपदेशों का उस पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ रहा था । उसके हृदय में ज्ञानगर्भित वैराग्य जागने लगा था । संसार की असारता और विषयभोगों की तुच्छता उसकी समझ में आने लगी । अतः उसने श्रीमद् से दीक्षा प्रदान करने की याचना की । श्रीमद् मोहन की परीक्षा ली और अपने गुरु श्री प्रमोदजी महाराज से राजेन्द्र- ज्योति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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