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________________ ५१२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ केवलि-काल प्रधान शिष्य श्री इंद्रभूति गौतम ०००००००००००० 000000000000 NAERA भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद उनके पट्ट पर श्री सुधर्मा स्वामि को स्थापित किया गया, किन्तु भगवान महावीर के प्रधान शिष्यरत्न श्री गौतम स्वामि के परिचय के बिना इतिहास को आगे बढ़ाना एक ऐतिहासिक कमी होगी। श्री गौतम स्वामी का भगवान महावीर के शासन में इतना विशाल व्यक्तित्व रहा कि उसकी कोई उपेक्षा कर ही नहीं सकता। जन्म श्री गौतम का जन्म स्थान गोब्बर ग्राम माना जाता है जो राजगृह के निकट था । गौतम गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में ईसा पूर्व ६०७ वर्ष में श्री गौतम का जन्म हुआ। इन्द्रभूति नाम रखा गया । वसुभूति पिता था और 'पृथ्वी' माता का नाम था। अग्नि भूति और वायुभूति, ये दो छोटे भाई थे । पाण्डित्य इन्द्रभूति गौतम आदि तीनों भ्राता बाल्यावस्था से ही बड़े बुद्धिमान और तत्त्व जिज्ञासु थे । पच्चीस वर्ष की वय तक विविध प्रकार की विद्याओं, वेद वेदांगों आदि का विस्तृत अध्ययन कर श्री गौतम अधिकृत विद्वान सिद्ध हो गये। उन्होंने अपने वाक्चातुर्य तथा सुदृढ़ ज्ञान-शक्ति के द्वारा अनेकों विद्वानों को विवाद में पराजित किया और वादि-गजसिंह, जैसी अनेकों उपाधियाँ प्राप्त की। श्री गौतम के पांडित्य से प्रभावित हों, सहस्रों विद्यार्थी इनके पास ज्ञानार्जन को आया करते थे। पांच सौ विद्यार्थी तो प्रायः विद्याध्ययन के लिए निरन्तर निकट ही रहते थे । बड़े-बड़े विद्वान ब्राह्मण तथा धनाढ्य व्यक्ति अपने यज्ञादि अनुष्ठान श्री गौतम के हाथों सम्पन्न कराने में अपना सौभाग्य समझते थे। श्री गौतम वैदिक कर्मकाण्ड के भी सफल साधक थे। विधि-विधान युक्त क्रियाकाण्ड सम्पन्न करने में वे बेजोड़ थे। प्रभु के चरणों में अपापा निवासी सोमिल ब्राह्मण ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया था। उसने अपने उस विशाल यज्ञ में इन्द्रभूति के अलावा अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडित, मौर्य, अकंपित, अचल भ्राता और प्रभास जैसे श्रेष्ठ कर्मकाण्डी प्रसिद्ध विद्वानों को भी निमन्त्रित किया । सम्पूर्ण यज्ञ श्री इन्द्रभूति की अध्यक्षता में सम्पन्न हो रहा था। उन दिनों विश्व ज्योति भगवान महावीर भी वहीं पधारे हुये थे । समवसरण की रचना थी। देवगण गगन मार्ग से प्रभु के दर्शनार्थ उमड़ रहे थे। यज्ञानुष्ठान जहाँ संपन्न हो रहा था देवगण वहीं होकर समवसरण की तरफ बढ़ रहे थे। यज्ञकर्ता प्रायः समझ रहे थे कि हमारी आहुतियों से प्रसन्न होकर देव यज्ञ में उपस्थित हो रहे हैं किन्तु जब देवगण आगे बढ़ जाते तो उन्हें बड़ी निराशा होती। इतना ही नहीं, इन्द्रभूति को तो यह अपना सबसे बड़ा अपमान लगा। वे तिलमिला उठे। उन्होने लगभग चिल्लाते हुए कहा-वह इन्द्रजालिया कौन है जो मेरे यज्ञ में आते देवों को आकृष्ट करता है ? मैं उसे अभी वाद और विद्या दोनों तरह से पराजित करके रहूँगा। किसी ने भगवान महावीर का परिचय दिया तो इन्द्रभूति क्रोधित हो उधर ही चल पड़े उन्हें अपनी विद्या और कर्मकाण्ड का बड़ा गर्व था। भगवान समवसरण के मध्य विराजमान थे। इन्द्रभूति गौतम ज्यों ही प्रभु के निकट पहुंचे, प्रभु की आकर्षक दिव्य आकृति, सौम्य मुखमंडल तथा देवकृत 09900 Vain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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