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________________ तूफानों के बीच प्रभु का विहार सुरभिपुर की ओर हो रहा था मार्ग में गंगा बह रही थी । मार्ग अवरुद्ध था, नाव ही उस तट जाने का साधन था । प्रभु नाव में ध्यानस्थ हो बैठे। सुदंष्ट्र नामक एक दुष्ट देव ने एक भयंकर उपद्रव खड़ा कर दिया। नाव के चारों ओर तूफान उमड़ आये, नाव भयंकर संकट में गिर गई, अन्य जितने भी व्यक्ति नाव में बैठे थे काँपने लगे । तभी संबल कंबल नामक प्रभु के भक्तदेवों ने उस उपसर्ग का निवारण किया। भयंकर तूफानों के बीच भी प्रभु स्थिर थे । चरण चिन्ह जैन परम्परा एक ऐतिहासिक यात्रा | ४६६ भगवान स्थूणाक पधारे थे । पुष्य नामक एक चिन्ह विशेषज्ञ ने भगवान के चरण चिन्ह देखे, उसने समझा कोई चक्रवर्ती है । वह यदि मिल जाए तो मुझे अच्छी राशि दक्षिणा में मिलेगी। वह चरण चिन्हों के सहारे भगवान तक पहुँचा । निष्परिग्रही प्रभु को एक भिक्षुक के रूप में देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने कहा चिन्ह-शास्त्र झूठा है, उसने ग्रन्थों को नदी में बहा देने का निश्चय किया था तभी देवराज इन्द्र ने उपस्थित होकर उससे कहा " दैवज्ञ, ग्रन्थों में अश्रद्धा मत करो, ये कोई सामान्य भिक्षुक नहीं है । साक्षात महाप्रभु तीर्थंकर हैं ये धर्म चक्रवति हैं, अतः तुम्हारा निर्णय दूषित नहीं है । इस तरह पुष्य का समाधान हो गया । उसने प्रभु की अभिवन्दना की । गोशालक मिला एक बार भगवान राजगृह के तन्तुवायशाला में ठहरे हुए थे, मंखली पुत्र गोशालक भी वहीं था। प्रभु जहाँ पारणा करते, वहाँ पंच दिव्य प्रकट होते, इससे गोशालक बड़ा प्रभावित हुआ। एक दिन उसने भगवान से अपनी भिक्षा के लिये पूछा । प्रभु ने कहा-खट्टी छाछ, कोदों का भात और खोटा रुपया मिलेगा और वैसा ही मिला। इससे गोशालक को भगवान के अतीन्द्रिय ज्ञान का परिचय मिल गया । प्रभु 'कोल्लाग' पधारे, गोशालक भी वहीं पहुँचा और उसने प्रभु को अपना धर्माचार्य स्वीकार किया । खीर नहीं मिलेगी स्वर्णखल के पास एक जगह क्षीर पक रही थी। गोशालक ने भगवान से ठहरने का आग्रह किया क्योंकि क्षीर मिलने की सम्भावना थी किन्तु भगवान ने कहा-क्षीर नहीं मिलेगी। प्रभु तो आगे बढ़ गये किंतु गोशालक ठहरा किंतु हँडिया फूट जाने से क्षीर नष्ट हो गई और गोशालक की आशा मन की मन में धरी रह गई । चोर समझ लिया भगवान चौराक सन्निवेश पधारे। वहाँ नगर रक्षकों ने उन्हें कई यातनाएँ दी किंतु प्रभु मौन रहे । जब यह सूचना नगर में फैली तो उत्पल नैमेत्तिक की बहनें "सोमा और जयन्ति" ने जब यह सुना, उन्होंने भगवान को देखते ही अपने निमित्त से जनता को भगवान का सही परिचय दिया । पहरेदारों ने अपनी भूल स्वीकार कर क्षमा याचना की। लपटों में भी स्थिर प्रभु हलिदुग नामक एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे अन्य व्यक्ति भी वहाँ विश्राम कर रहे थे । उन्होंने शीत निवारण हेतु आग जलाई किंतु वे जाते समय बुझाना भूल गये। आग फैलती गई प्रभु के पैर झुलस गये किंतु वे अडिग ध्यानस्थ रहे । बंधन में प्रभु कलंबुका पधारे, वहाँ के रक्षक कालहस्ति ने प्रभु को दस्यु (चोर) समझ कर कई यातनाएं दी और बंधन में डालकर अपने भाई 'मेघ' के सामने उपस्थित किया। 'मेघ' प्रभु को पहचानता था, देखते ही वह चरणों में नतमस्तक हो गया और कालहस्ति को वास्तविकता से परिचित किया। कालहस्ति प्रभु से क्षमा-याचना करने लगा । Mharalhin Pratidw ⭑ Pinte 000000000000 000000000000 149000000 2/
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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