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________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | ३१७ 000000000000 ०००००००००००० उपशमक वर्ग बाले दर्शनमोह की तीन१०५ और चारित्रमोह की चार१०६-इन सात प्रकृतियों का उपशमन करते हैं । वे अष्टम, नवम, दशम और एकादशम गुणस्थान को प्राप्त कर पुनः प्रथम गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं । क्षपक वर्ग वाले दशवें गुणस्थान से सीधे बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। बाद में तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का स्पर्श कर मुक्त हो जाते हैं। यहाँ गुणस्थानों का अति संक्षिप्त परिचय दिया है। विशेष जिज्ञासा वाले 'गुणस्थान क्रमारोहण' नाम का ग्रन्थ देखें। मुक्त होने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने वाले केवली के समुद्घात को 'केवली समुद्धात' कहा जाता है। सभी केवली "केवली समुद्घात" नहीं करते हैं। केवल वे ही केवली "केवली समुद्घात" करते हैं जिनके आयु कर्म के दलिक एक अन्तर्मुहूर्त में समाप्त होने योग्य हों और वेदनीय, नाम एवं गोत्र के दलिक इतने अधिक हों जिनकी अन्तम हुर्त में समाप्ति संभव न हो । केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। प्रथम समय में केवली आत्म-प्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं। वह मोटाई में स्वशरीर प्रमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्तपर्यन्त विस्तृत होता है । द्वितीय समय में केवली उसी दण्ड को पूर्व-पश्चिम और दक्षिण-उत्तर में फैलाते हैं। फिर उस दण्ड का लोकपर्यन्त फैला हुआ कपाट बनाते हैं । तृतीय समय में दक्षिण-उत्तर अथवा पूर्व-पश्चिम दिशा में लोकान्तपर्यन्त आत्म-प्रदेशों को फैलाकर उसी कपाट को "मथानी" रूप बना देते हैं। ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग आत्म-प्रदेशों से व्याप्त हो जाता है। किन्तु मथानी की तरह अन्तराल प्रदेश खाली रहते हैं । चतुर्थ समय में मथानी के अन्तरालों को पूर्ण करते हुए समस्त लोकाकाश को आत्म-प्रदेशों से भर देते हैं क्योंकि लोकाकाश और जीव के प्रदेश बराबर हैं। पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में विपरीत क्रम से आत्म-प्रदेशों का संकोच करते हैं । इस प्रकार आठवें समय में सब आत्म-प्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं । मुक्ति के द्वार यहाँ मुक्त आत्माओं के सम्बन्ध में क्षेत्रादि द्वादश द्वारों (विषयों) का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। (१) क्षेत्र-(क) जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्म-भूमियों में उत्पन्न मानव मुक्त होते हैं । (ख) संहरण की अपेक्षा सम्पूर्ण मानव क्षेत्र से "मानव" मुक्त हो सकता है । (२) काल-(क) जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणी, उत्सपिणी तथा अनवसर्पिणी । अनुत्सर्पिणी में जन्मा हुआ मानव मुक्त होता है। (ख) संहरण की अपेक्षा भी पूर्वोक्त कालों में जन्मा हुआ मानव मुक्त हो सकता है। (३) गति-(क) अन्तिम भव की अपेक्षा मानव गति से आत्मा मुक्त होती है । (ख) पूर्व भव की अपेक्षा चारों गतियों से आत्मा मुक्त हो सकती है। (४) लिंग-(क) लिंग अर्थात् वेद या चिन्ह । वर्तमान की अपेक्षा वेद-विमुक्त आत्मा मुक्त होती है। (ख) अतीत की अपेक्षा स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुंसक वेद से भी आत्मा मुक्त हो सकती है। चिन्ह-(क) वर्तमान की अपेक्षा लिंग रहित आत्मा मुक्त होती है। (ख) अतीत की अपेक्षा भाव लिंग आत्मिक योग्यता-वीतराग भाव से स्वलिंग धारी आत्मा की मुक्ति होती है।
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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