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________________ ३१६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० २. सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान औपशमिक सम्यक्त्व वाला आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर झुकता है जब तक वह आत्मा मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता तब तक सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है । ३. सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान जिसकी दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या होती है वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है । ४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत-प्रत्याख्यान नहीं कर पाता वह अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है। ५. देशविरत गुणस्थान प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव सावद्य क्रियाओं से सर्वथा विरत नहीं हो पाता, किन्तु देश (अंश) से विरत होता है । वह देशविरत गुणस्थान वाला 'श्रावक' कहा जाता है। ६. प्रमत्त संयत गुणस्थान जो जीव प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव में सभी प्रकार की सावध क्रियाओं का त्याग करके सर्वविरत तो हो जाता है लेकिन प्रमाद का उदय उसे रहता है, वह प्रमत्त संयत गुणस्थान वाला कहलाता है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान जो संयत मुनि निद्रा, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमादों का सेवन नहीं करता वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। ८. निवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान जिस जीव के बादर (स्थूल) संपराय (कषाय) की सत्ता में से भी निवृत्ति प्रारम्भ हो गई है वह निवृत्ति बादर संपराय गुणस्थानवाला कहा जाता है ।१०४ ६. अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान जिस जीव के स्थूल कषाय सर्वथा निवृत्त नहीं हुए हैं अर्थात् सत्ता में जिसके संज्वलन लोभ विद्यमान है । वह अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान वाला कहा जाता है । १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान जिस जीव के लोभकषाय के सूक्ष्म-खण्डों का उदय रहता है, वह सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला कहा जाता है । ११. उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान जिस जीव के कषाय उपशान्त हुए हैं और राग का भी सर्वथा उदय नहीं है। वह उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वाला कहा जाता है। १२. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान जिस जीव के मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीन घातिकर्म अभी निर्मूल नहीं हुए हैं । अतः वह क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वाला कहा जाता है। १३. सयोगिकेवली गुणस्थान चारों घातिकर्मों का क्षय होकर जिसको केवलज्ञान प्राप्त हो गया है किन्तु मन, वचन और काय योग का व्यापार होता है अतः वह सयोगिकेवली गुणस्थान वाला कहा जाता है। १४. अयोगिकेवली गुणस्थान तीनों योगों का निरोध कर जो अयोगि अवस्था को प्राप्त हो गए हैं वे अयोगि केवली गुणस्थान वाले हैं। मुक्तात्माओं के दो वर्ग आठवें गुणस्थान में मुक्तात्माओं के दो वर्ग बन जाते हैं। एक उपशमक वर्ग और दूसरा क्षपक वर्ग । 4DADANA 208
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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