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________________ २३६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० mummy TAMIL संसारी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म परमाणु चिपके हुए हैं । अग्नि के तपाने और घन से पीटने पर सुइयों का समूह एकीभूत हो जाता है । इसी एकार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध संश्लिष्ट है। यह सम्बन्ध जड़ चेतन को एक करने वाला तादात्म्य सम्बन्ध नहीं किन्तु क्षीर-नीर का सम्बन्ध है। अतः आत्मा अमूर्त है यह एकांत नहीं है। कर्मबंध की अपेक्षा से आत्मा कथञ्चिद् मूर्त भी है। आत्मा के अनेक पर्यायवाची नामों में से एक नाम पुद्गल भी है। यह पुद्गल अभिधा मी आत्मा का मूर्तत्व प्रमाणित करती है । अतः कर्म का आत्मा पर प्रभाव मूर्त पर मूर्त का प्रभाव है। सम्बन्ध का अनादित्व जैन दर्शन में आत्मा निर्मल तत्त्व है । वैदिक दर्शन में ब्रह्म तत्त्व विशुद्ध है। कर्म के साहचर्य से यह मलिन . बनता है । पर इन दोनों का सम्बन्ध कब जुड़ा ? इस प्रश्न का समाधान अनादित्व की भाषा में हुआ है। क्योंकि आदि मानने पर बहुत-सी विसङ्गतियाँ आती हैं । जैसे---सम्बन्ध यदि सादि है तो पहले आत्मा है या कर्म हैं या युगपद् दोनों का सम्बन्ध है । प्रथम प्रकार में पवित्र आत्मा कर्म करती नहीं। द्वितीय भंग में कर्म कर्ता के अभाव में बनते नहीं। तृतीय भंग में युगपद् जन्म लेने वाले कोई भी दो पदार्थ परस्पर कर्ता कर्म नहीं बन सकते। अत: कर्म और आत्मा का अनादि सम्बन्ध ही अकाट्य सिद्धान्त है। हरिभद्रसूरि ने अनादित्व को समझाने के लिए बहुत ही सुन्दर उदाहरण देते हुए कहा-वर्तमान समय का अनुभव करते हैं। फिर भी वर्तमान अनादि है क्योंकि अतीत अनन्त है और कोई भी अतीत वर्तमान के बिना नहीं बना फिर भी वर्तमान का प्रवाह कब से चला इस प्रश्न के उत्तर में अनादित्व ही अभिव्यक्त होता है। इसी प्रकार कर्म और आत्मा का सम्बन्ध वैयक्तिक दृष्टि से सादि होते हुए भी प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। धर्मबिन्दु' में भी यही स्वर गूंज रहा है । आकाश और आत्मा का सम्बन्ध अनादि अनन्त है। पर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध स्वर्ण मृत्तिका की तरह अनादि सान्त है। अग्नि के ताप से मृत्तिका को गलाकर स्वर्ण को विशुद्ध किया जा सकता है। शुभ अनुष्ठानों से कर्म के अनादि सम्बन्ध को तोड़कर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। बाह्य वस्तुओं की प्राप्ति में कर्म का सम्बन्ध कर्म दो प्रकार के हैं घाती कर्म, अघाती कर्म । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार आत्मगुणों की घात करते हैं अतः इन्हें घाती कर्म कहते हैं। इनके दूर होने से आत्म-गुण प्रकट होते हैं । शेष चार अघाती कर्म हैं । क्योंकि ये मुख्यतः आत्म-गुणों की घात नहीं करते ।। अघाती कर्म बाह्यर्थापेक्षी हैं । भौतिक तत्त्वों की प्राप्ति इनसे होती है। सामान्यतः एक प्रचलित विचारधारा है कि जब किसी बाह्य पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती तब सोचते हैं यह कर्मों का परिणाम है । अन्तराम कर्म टूटा नहीं है । पर यथार्थ में यह तथ्य संगत नहीं है। अन्तराय कर्म का उदय तो इसमें मूल ही नहीं है क्योंकि यह घाती कर्म है। इससे आत्म-गुणों का घात होता है । इसके टूटने से आत्म-गुण ही विकसित होते हैं। अन्य कर्मजनित परिणाम भी नहीं है क्योंकि किसी कर्म का परिणाम बाह्य वस्तु का अभाव हो तो सिद्धावस्था में सभी सामग्री उपलब्ध होनी चाहिए क्योंकि उनके किसी कर्म का आवरण नहीं है और यदि किसी के उदय-जनित परिणाम पर ही बाह्य सामग्री निर्भर है SARD SHAIL १ स्याद्वाद मञ्जरी, पृ०१७४ २भग. श. २०१२ ३ योग शतक श्लो०५५ ४ धर्मबिन्दु २-५२ पवाह तोऽनादिमानिति । ५ योगशतक श्लो० ५७ ६ कर्मकाण्ड १६ आवरण मोह विग्घंघादी-जीव गुण घादणात्तादो । आउणाम गोदं वेयणियं अघादित्ति । Pसाप GoldN भ JameEducation international - watestresorrosco amelavanysongs
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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