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________________ कर्म-सिद्धान्त : मनन और मीमांसा | २३५ ०००००००००००० ०००००००००००० एक प्रश्न उठता है कि जब निकाचित में सब करण अयोग्य ठहर जाते हैं। दश अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था इसे प्रभावित नहीं कर सकती । तब निकाचित के परिवर्तन का रहस्य क्या हो सकता है। विपाकोदय का अनामोग तो तप विशेष से नहीं बनता, वह तो सहज परिस्थितियों के निमित्त मिलने पर निर्भर है । अतः यहाँ निकाचित के । परिवर्तन का हार्द यह सम्भव हो सकता है कि हर कर्म के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का बंधन होता है। इन चार में जिसका निकाचित पड़ा है उसमें तो किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं होता शेष में हो सकता । यदि स्थिति का निकाचित है तो प्रकृति बन्ध में परिवर्तन हो सकता है । और ऐसा मानने से अन्य प्रसङ्गों से कोई बाधा भी दिखाई नहीं देती। कर्म की ये दश अवस्थाएँ पुरुषार्थ की प्रतीक हैं, मानस की अकर्मण्य वृत्ति पर करारी चोट करती है । कर्म की भौतिकता कर्म भौतिक है । जड़ है । क्योंकि वह एक प्रकार का बंधन है । जो बंधन होता है वह भौतिक होता है । बेड़ी मनुष्य को बाँधती है । तट नदी को घेरते हैं । बड़े-बड़े बाँध पानी को बाँध लेते हैं। महाद्वीप समुद्रों से आबद्ध रहते हैं । ये सब भौतिक हैं । इसीलिए बंधन हैं । आत्मा की बैकारिक अवस्थाएं अभौतिक होती हुई भी बंधन की तरह प्रतीत होती हैं, पर वास्तव में बंधन नहीं हैं, बंधजनित अवस्थाएँ हैं । पौष्टिक भोजन से शक्ति संचित होती है । पर दोनों एक नहीं हैं। शक्ति भोजनजनित अवस्था है। एक भौतिक है, इतर अभौतिक है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव ये पाँच द्रव्य अभौतिक हैं इसीलिए किसी के बंधन नहीं हैं। भारतीय इतर दर्शनों में कर्म को अभौतिक माना है। योग दर्शन में अदृष्ट आत्मा का विशेष गुण है । सांख्य दर्शन में कर्म प्रकृति का विकार है, बौद्ध दर्शन में वासना है और ब्रह्मवादियों में अविद्या रूप है। कर्म को भौतिक मानना जैन दर्शन का अपना स्वतन्त्र और मौलिक चिन्तन है। कर्म-सिद्धान्त यदि तात्त्विक है तो पाप करने वाले सुखी और पुण्य करने वाले दुःखी क्यों देखे जाते हैं यह प्रश्न भी कोई उलझन भरा नहीं है। क्योंकि बंधन और फल की प्रक्रिया भी कई प्रकार से होती है। जैन दर्शन में चार मंग आये हैं ___ 'पुण्यानुबंधी पाप' 'पापानुबंधी पुण्य' 'पुण्यानुबंधी पुण्य' 'पापानुबंधी पाप' भोगी मनुष्य पूर्वकृत पुण्य का उपभोग करते हुए पाप का सर्जन करते हैं । वेदनीय को समभाव से सहने वाले पाप का भोग करते हुए पुण्य का अर्जन करते हैं। सर्व सामग्री से सम्पन्न होते हुए भी धर्मरत प्राणी पुण्य का भोग करते हुए पुण्य का संचय करते हैं। हिंसक प्राणी पाप का भोग करते हुए पाप को जन्म देते हैं । इन मंगों से यह स्पष्ट है कि-जो कर्म मनुष्य आज करता है उसका फल तत्काल ही नहीं मिलता। बीज बोने वाला फल को लम्बे समय के बाद पाता है। इस प्रकार कृत कर्मों का कितने समय तक परिपाक होता है फिर फल की प्रक्रिया बनती है। पाप करने वाले दुःखी और पुण्य करने वाले सुखी इसीलिए हैं कि वे पूर्वकृत पाप-पुण्य का फल भोग रहे हैं । अमूर्त पर मूर्त का प्रभाव कर्म मूर्त है । आत्मा अमूर्त है । अमूर्त आत्मा पर मूर्त का उपघात और अनुग्रह कैसे हो सकता है जबकि अमूर्त आकाश पर चन्दन का लेप नहीं होता और न मुष्टिका प्रहार भी। यह तर्क ठीक है, पर एकान्त नहीं है । क्योंकि ब्राह्मी आदि पौष्टिक तत्त्वों के आसेवन से अमूर्त ज्ञान शक्ति में स्फुरण देखते हैं। मदिरा आदि के सेवन से - संमूर्छना भी। यह मूर्त का अमूर्त पर स्पष्ट प्रभाव है। यथार्थ में संसारी आत्मा कथञ्चिद् मूर्त भी है। मल्लिषेणसूरि ने लिखा है : EARN १ योगश० ५४ "कम्म च चित्त पोग्गल रूवं जीवस्स अणाइ संबद्धं" २ योगशतक ४६ मुत्तेण ममुत्तिओ उवघायाणुग्गहा विजुज्जनि-जह विनाणस्स इहं मइरा पाणो सहाईहिं । r andu For Private & Personal use only - गाव ::SBhart/www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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