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________________ १७८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० ARMA .. .....2 LUTRITTES वल्लभनगर के दस-बीस सज्जन पूज्यश्री के दर्शनार्थ गिलूंड बैलगाड़ियों द्वारा जा रहे थे । मार्ग में काबरा गाँव आता है । गाड़ियों को देखते ही डाकुओं ने घेर लिया । सरदार आया, उसने पूछा-कहाँ जा रहे हो ? गाड़ीवान ने कहा--गिलूंड हम चोथमलजी महाराज साहब के दर्शन करने जा रहे हैं । सरदार ने उसे एक झपट लगा दी । इतने में गाड़ी में से किसी महाजन ने कहा-हम मोतीलालजी महाराज साहब के दर्शन को जा रहे हैं। डाकू ने कहातुम्हारा कहना ठीक है। गिलूड में पूज्य मोतीलालजी महाराज हैं, मैं देखकर आया हूँ। यह डाका गिलूड में पड़ने वाला था, किन्तु महाराज वहाँ ठहरे हुए हैं इसलिए हम वहाँ से हटकर यहाँ आ गये। सरदार ने आगे कहा-तुम सभी यहाँ रुक जाओ। एक जाजम बिछाकर सभी को बिठा दिया। महाजन अपने सोने के बटन, कड़े और गोपडोरे छुपाने लगे । डाकू सरदार ने कहा- तुम व्यर्थ क्यों छुपा रहे हो? हम लेना चाहेंगे तो बन्दूक की नोंक पर सब निकलवा लेंगे। किन्तु हमें लेना नहीं है। आप लोग महाराज के दर्शन करने जा रहे हैं। गुरुदेव के दर्शनों को जाने वालों को हम नहीं लूटा करते । जब डाका पूरा हुआ, बड़े प्रेम से उन्होंने महाजनों को विदा दी। घटना आश्चर्यजनक लगती है। किन्तु अध्यात्म का भी अपना अलग प्रभाव होता है, जो अचिन्त्य और अमित होता है। ऐसा ही चमत्कारिक एक उदाहरण तब मिला, जब जयपुर निवासी जौहरी नौरत्नमलजी काशीनाथजी वाले किसी संगीन अपराध के मामले में फंस गये। उन्हें बचने की कोई आशा नहीं थी। वे मानते थे कि थोड़े ही दिनों में जब केस का निर्णय सुनाया जायगा, मैं जेल के सींखचों में बन्द मिलूगा । वे बड़े सोच में थे। निर्णय का दिन था। पूज्यश्री वहीं विराजमान थे। बड़ा भारी मन लेकर वे मांगलिक सुनने को स्थानक आये । मांगलिक लेकर अदालत में पहुंचे। निर्णय जो हुआ, वह कम आश्चर्यजनक नहीं था। नौरत्नमलजी बाइज्जत बरी कर दिये गये। नौरत्नमलजी का मन-मयूर नाच उठा। दौड़कर वे पूज्यश्री के चरणों में पहुंचे। चरण चूमने लगे। स्तुति करते हुए उन्होंने सारी बात बताई। घर जाकर पांच हजार रुपये लेकर आये और कहने लगे-ये धर्म के लिए निकाले हैं, कहाँ लगाऊँ ? पूज्यश्री ने कहाँ-जहाँ उपकार हो। नीरत्नमलजी ने पाँच हजार रुपये जैन कन्याशाला जयपुर में लगाये। पूज्यश्री की जन्म-भूमि दीक्षा-भूमि और निर्वाण-भूमि यद्यपि मेवाड़ रही, किन्तु कार्य-क्षेत्र, विचरण-क्षेत्र केवल मेवाड़ तक सीमित नहीं था वह व्यक्तित्व ऐसा नहीं था कि किसी सीमा में आबद्ध हो सके। पंजाब में रावलपिण्डी (वर्तमान में पाकिस्तान), महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात आदि--दक्षिण के कुछ-एक प्रदेशों को छोड़कर-लगभग पूरे भारतवर्ष में पूज्यश्री का बड़ा सुन्दर विचरण रहा। पूज्यश्री के विचरण-क्षेत्र को देखते हुए उनकी विशाल घुमक्कड़ प्रकृति का परिचय मिलता है । सचमुच जैन-समाज के अच्छे से अच्छे उग्र विहारी मुनियों में पूज्यश्री का नाम अग्रगण्य रहेगा। जीवन के आखिरी २२ वर्षों तक मेवाड़ सम्प्रदाय के शासन का बड़े सुन्दर ढंग से संचालन किया। इस बीच कई दीक्षाएँ पूज्यश्री के हाथों सम्पन्न हुईं । हजारों उपकार हुए। धर्मसंघ पूज्यश्री के नेतृत्व में फला-फूला। श्रमण संघ बनने पर मन्त्री पद के दायित्व का निर्वाह निर्भीकता से किया। पूज्यश्री का पूरा जीवन लगभग अप्रमत्त रहा। वर्षों तक एक समय भोजन किया करते और वह भी ठण्डा और रूक्ष । लगभग प्रतिदिन पाँच-छह कभी-कभी सात-सात घण्टे पूज्यश्री लेखन कार्य किया करते। उनके हाथों लिखी सैकड़ों प्रतियाँ आज उपलब्ध हैं । वे उनके अप्रमत्त जीवन की प्रमाण हैं। पिछले पृष्ठों में पूज्यश्री मोतीलालजी महाराज साहब के जीवन के सामान्य परिचय के साथ विशिष्ट घटनाओं का कुछ-एक परिचय दिया है। पOD Jain Education International For Private & Personal use only www.jamenbrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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