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________________ पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज | १७७ 000000000000 ०००००००००००० AVE aon JAMIL ..... PARANASI MITRA SR... MALACHIA ........ के प्रमुख उपासकों ने आकर कहा कि हमारे महाराज चर्चा नहीं करना चाहते । तभी पूज्यश्री ने पुनः मेवाड़ की ओर विहार किया। उक्त प्रसंग से यदि कोई यह निष्कर्ष निकाले कि पूज्यश्री कट्टर सम्प्रदायवादी थे तो यह सोचना उनके प्रति अन्याय होगा। यूं वे एक सम्प्रदाय के आचार्य थे। फिर भी उनके विचारों में अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर के माव थे। तभी अपने उपासकों को अन्य सम्प्रदाय के आचार्य की सेवा में भेजा तथा उनकी आहारादि की पृच्छा कराई । यदि नितान्त कट्टर होते तो ऐसा हो नहीं सकता। अपने सिद्धान्तों के प्रति वफादारी उनमें अवश्य थी। किन्तु अन्य के प्रति द्वेष नहीं था । इतना ही नहीं। वे पारस्परिक स्नेह भाव के समर्थक थे। साम्प्रदायिक कटुता के वे विरोधी थे। स्थानकवासी समाज की उपसम्प्रदायों के विषय में भी उनका कहना था कि सभी को एक-दूसरे का आदर करते हुए प्रेम से रहना चाहिए । शहरों में होने वाले साम्प्रदायिक भेदभावों से उन्होंने मेवाड़ के समाज को बहुत दूर तक बचाये रक्खा । उनका अभिमत था कि साधु समाज की एकता के लिए अग्रगण्य मुनियों को स्वयं निर्णय करना चाहिए । गृहस्थों की बातों में आकर चले तो समाज की एकता नहीं रह सकती। बनेड़िया में पूज्य उपाचार्य श्री गणेशीलालजी महाराज साहब पूज्यश्री के दर्शनार्थ पधारे । तब श्रमण संघ बना ही था। पूज्यश्री मन्त्री पद पर थे। दोनों का छोटे-बड़े भाई जैसा बड़ा मधुर मिलन रहा । दो दिन बाद जब पूज्य उपाचार्य श्री विहार करने लगे तो उन्होंने वन्दन करते हुए बड़े ही नम्रभाव से कहा कि मुझे आशीर्वाद दो कि संघ ने जो भार सौंपा वह निम जाए । इस पर पूज्यश्री ने कहा कि गणेशलालजी, लाल-पीली पगड़ियों वालों की बातों में मत आना । यदि इस बात का ध्यान रखा तो तुम्हारे नेतृत्व में श्रमण संघ फलेगा-फूलेगा । पाठक इससे समझ गये होंगे कि उनका यह संकेत कितना सार्थक तथा उपयोगी था। आज संघ की जो भी स्थिति बनी उसके पीछे उपासकों का सम्प्रदायवाद प्रमुख रहा। इसमें कोई सन्देह नहीं। मुनिजन भी उस प्रवाह में बहते गये। जीवन की उत्क्रान्ति एक वलय लेकर बढ़ती है। उसका अपना प्रभाव होता है। जो भी उस वलय की परिधि में आ जाता है, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । कहते हैं, भगवान के समवसरण में सिंह और बकरी भी निकट बैठकर वाणी रस का पान किया करते थे। ये परस्पर भक्षक और भक्ष्य हैं। किन्तु प्रभु का प्रभावलय इतना उत्कृष्ट प्रभावक होता है कि सिंह भूखा भी बैठा रहेगा, किन्तु अपने भक्ष्य की तरफ लक्ष्य नहीं करेगा। किसी भी व्यक्तित्व का यह आध्यात्मिक प्रभाव होता है, जो केवल अन्तर्जगत का विषय है। व्यक्तित्व की अनोखी प्रभविष्णुता पर तर्क किया जा सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं; किन्तु आश्चर्यजनक जो हो जाता है, वह तो हो ही जाता है, तर्क भी उसे होने से रोक तो नहीं सकता। कहते हैं, भगवान शान्तिनाथ के जन्म के पूर्व ही मृगी रोग समाप्त हो गया जो उधर व्यापक रूप से फैला हुआ था। भगवान तीर्थंकर जिधर निकलते हैं, दूर-दूर तक स्वस्थता का एक नया वातावरण बनता जाता है। पर ऐसा होता क्यों है ? इस 'क्यों' का सामान्यतया कोई उत्तर नहीं। यह अन्तर्जगत का विषय है, बाह्य परिप्रेक्ष्य में जीने वाला साधारण मानव इस अलौकिक-आन्तरिक शक्ति की थाह पा नहीं सकता। पूज्यश्री मोतीलालजी महाराज एक बार गिलूंड में विराजित थे। डाकुओं का एक शक्तिशाली दल गाँव को लूटने के लिए चला आया । किन्तु डाकुओं के सरदार ने ज्यों ही उस गांव में पूज्यश्री को उपस्थित देखा, तत्काल वहाँ से चल पड़ा। उस दिन उन्होंने 'काबरा' गांव को लूटा । NIYON SI he handi --- -~- SSrestE/
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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