SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज 000000000000 000000000000 मेवाड़ में जिन-शासन को समलंकृत करने वाले संत-रत्नों को ज्योतिर्मयी परम्परा में पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज का समुज्ज्वल व्यक्तित्व अपनी विमल सुयश कान्ति से सर्वदा दमकता रहेगा। मेवाड़ के संघ को सुव्यवस्थित नवीनता से सुसज्जित करने का श्रेय पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज को देना ही होगा। जन्म संगेसरा । जि० चित्तौड़गढ़) एक छोटा-सा प्राचीन गाँव है, नदी के किनारे बसा है। प्राचीन असली नाम शृगेश्वर होगा । वही आगे चलकर संगेसरा कहलाया । जोगियों का यहाँ बहुत पुराने समय से प्रभुत्व रहा । श्री शिवलाल जी सहलोत यहाँ के सुप्रतिष्ठित नागरिक थे। पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज इन्हीं की संतान थे। माता का नाम सुरताबाई था । वि० सं० १९१७ ज्येष्ठ कृष्णा अमावस की सघन रात्रि में सुरताबाई ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया । वही शिशु कालान्तर में मेवाड़ धर्मसंघ का शासक सिद्ध हुआ। कहते हैं, बाल्यावस्था में ही किसी ज्योतिषी ने जन्मांक देखकर बच्चे का उज्ज्वल भाग्य बताया। इतना ही नहीं, उसने स्पष्ट कहा कि बच्चा इतना भाग्यशाली है कि कभी मेवाड़ का शासक बने । यद्यपि यह बात उस समय केवल 'बात' मात्र थी, उसके फलित होने की न कोई संभावना ही थी, और न विश्वास ही किन्तु फिर भी बच्चे का नाम 'एकलिंग' रख दिया। यों मेवाड़ का राज्य एकलिंग जी (महाराणा के इष्ट देवता) का ही माना जाता है । बालक एकलिंग अच्छे संस्कारों में था । श्री शिवलालजी जैनधर्म के दृढ़ अनुगामी पूजनीय श्री वेणीचन्दजी महाराज के अग्रगण्य श्रावक-रत्न थे । श्री सुरताबाई भी उनसे भी दो कदम आगे धर्मानुगामिनी थी। बालक एकलिंग ऐसे संस्कारित माता-पिता के ससंस्कारों को बचपन से ही आत्मसात् करता, गुलाब कुसुम की तरह निरन्तर विकसित होता रहा । बचपन में तत्कालीन परम्परा के अनुसार आवश्यक अध्ययन कर श्री एकलिंग अपने पिता के कार्यों में हाथ बँटाने लगा। वय की अभिवृद्धि के साथ ही सांसारिकता के कई अनुभव श्री एकलिंग को मिलने लगे। यद्यपि गार्हस्थ जीवन नितान्त अभावग्रस्त नहीं था, फिर भी लोक जीवन में स्वार्थों के भयंकर संघर्ष जो चलते थे, उन्हें देखकर युवा एकलिंग का हृदय सांसारिकता से उपरत होने लगा। पारलौकिक तथा इहलौकिक सद्संस्कारों के अभ्युदय का ही परिणाम था कि श्री एकलिंग जी को युवावस्था में प्रविष्ट करने के साथ विरक्ति से अनुरक्ति होने लगी। संसार बांधता है, इसलिए बन्धन है। श्री एकलिंग जी को भी संसार ने बाँधने में कोई कोर कसर नहीं रखी। किन्तु उनकी सुदृढ़ वैराग्यानुभूति के आगे किसी आग्रह के टिकने और चलने का अवसर ही न था । श्री एकलिंग जी बालब्रह्मचारी ही रहे । POTOWNSAR
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy