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________________ १४२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 एक दिन किसी बात पर दोनों के बीच अनबन हो गई। उन्होंने सेठजी के सारे वैभव का बँटवारा कर लिया। जब पुत्र पर बात आई तो दोनों उस पर अपना अधिकार जताने लगीं। बच्चा एक था, दोनों के पास तो रह नहीं सकता था। दोनों बच्चे को अपने पास रखने के लिए तुली थीं । अन्ततः यह प्रश्न स्थानीय राजा के पास पहुंचा। किन्तु दोनों स्त्रियाँ बच्चे को अपना बता रही थीं। अतः राजा कोई निर्णय नहीं दे सका। महारानी ने जब इस कठिन उलझन को सुना तो उसने निर्णय देने का निश्चय किया। रानी ने दोनों स्त्रियों को अपने पास बुलाया और उसने बच्चे को दो भागों में बांटकर उसका एक-एक टुकड़ा दोनों को देने का निर्णय दिया। यह सुनकर जो माँ नहीं थी वह तो प्रसन्न हो गई। क्योंकि उसने सोचा-बच्चे की मृत्यु से यह भी निःसन्तान हो जायेगी। किन्तु जो वास्तव में माँ थी, वह रो पड़ी। उसने कहा-बच्चा मेरी साथिन के रहने दीजिये। मुझे इसका एक टुकड़ा नहीं चाहिए। दोनों की बातें सुनकर रानी ने असली माँ को पहचान लिया और बच्चा उसको दिला दिया। इतना सुन्दर न्याय करने के कारण रानी की बड़ी प्रशंसा हुई। वह रानी उस समय सगर्भा थी। कालान्तर में उसने जिस सन्तान को जन्म दिया उसका 'सुमति' अर्थात् 'अच्छी बुद्धिवाला' नाम रखा। वही सुमति नामक शिशु पाँचवें तीर्थकर भगवान सुमतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आचार्य श्री ने केवल तेरह गाथाओं में यह सब अंकित कर दिया। आचार्य श्री की एक कृति और मिली है। इसमें श्रीमती सती का आख्यान है । १८ गाथाओं में कथा के सभी पक्षों को उजागर कर दिया। इसमें वर्णन-शैली की सुन्दर छटा मिलती है। श्रीमती का परिचय देते हुए कवि लिखते हैं--- श्रीमती नामे बेटी छइ । गुणमणी केरी पेटी छइ। सील रतन करने सही ए॥ उपलब्ध कृतियों को देखने पर आश्चर्य होता है कि श्री रोड़जी स्वामी की ढाल को छोड़कर शेष तीनों कृतियाँ सं० १८८५ की मिलीं। इनमें दो तो रायपुर जहाँ उस वर्ष चातुर्मास था, में लिखी गई। एक उसी वर्ष गंगापुर में लिखी। गंगापुर रायपुर से केवल बारह मील पर है। __ आचार्य श्री वर्णनात्मक शैली के अच्छे कवि थे। उनकी और भी कई कृतियाँ रही होंगी। किन्तु खोज करने पर भी, अब तक नहीं मिलीं । सम्भवतः भविष्य में मिल सकें। आचार्य श्री के चातुर्मास आचार्य श्री ने अपने संयमी जीवन में कूल सैतीस वर्ष बिताए। तदनुसार कुल चातुर्मास सैंतीस हुए। सोलह चातुर्मास तो केवल उदयपुर में ही सम्पन्न हुए। इनमें नौ चातुर्मास पूज्य श्री रोड़जी स्वामी के साथ और शेष सात चातुर्मास आपने स्वयं किये। इनमें अन्तिम चातुर्मास भी गिन लिया गया है। श्री नाथद्वारा में नौ चातुर्मास हुए। एक सनवाड़, एक पोटलां, एक गंगापुर, दो लावा (सरदारगढ़), एक देवगढ़, दो रायपुर, एक कोटा, दो भीलवाड़ा और एक चित्तौड़। इस तरह कुल सैतीस वर्ष आचार्य श्री का संयमी जीवन रहा । इस बीच मेवाड़ के अधिकांश क्षेत्रों में विचरण होता रहा । साथ ही अनेकों उपकार भी हुए।' १ सोले चौमासा उदियापुर मांय जी, पुजजी कीदा आप हर्ष उछाय । हे मारग दिपायो आप जस लियो ऐ, हां ए दर्शन आपरो ए। निवारण पाप रो ए, पुजजी महाराज ॥१॥ श्रीजीदुवारे नव किया चौमास नरनारी हुआ हर्ष हुल्लास । हे दर्शन करीने पाप दूरी कियो ए ।।२।। सनवाड़ माहे एक चौमासो जोयजी, पोटलां माहे एक हीज होय । हे गंगापुर माहे एकज जाणिये हे ।।३।। लावा मांहे दोय चौमासो कीध जी, देवगढ़ माहे एक प्रसिद्ध । हे रायपुर मांहे दोय वखाणिये हे ॥४॥ कोटा मांहे चोमासो कियो एकजी, भीलोड़ा मांहे पण दोय । हे चित्तौड़ में चोमासो कियो मन रलिये है ।।५।। ऐ चौमासा हुआ सेत्रीस, कीधा आप आण जगीस । हे मनरा मनोरथ सहुँ फलि हे ॥६॥ चउथी ढाल कही छे रसालजी भव्यक जन लहे ऐलाद । है गुणकारी देही करी सली हे ॥७॥ WATA KE
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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