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________________ समर्पण जिन्होंने अपनी तप पुत: साधना, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक् आराधना, ध्यान और योग के पावन सोपान से 2268 करुणा सेवा ममता आदि मानवीय आदर्शों के अंगीकरण द्वारा इस विश्व के आत्मोत्थान के लिए जीवन के बहुमूल्य क्षण एवं मन के अणु अणु को ज्ञानोदय, धर्मोत्थान एवं जन जागरण के लिए समर्पित किया है। जो भारत के अधिकांश क्षेत्रों में पाद विहार कर सामाजिक शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दिशा में उत्थान हेतु उत्तरोत्तर गतिशील हैं। जो सदैव लौकिक लौकेषणा, मान-सम्मान एवं प्रशंसा से, निर्लिप्त रहे हैं। कर्म ही जिनकी पूजा है, सेवा ही जिनकी सुवास है, धर्म ही जिनका आचरण है और चारित्र एवं दर्शन ही जिनके वस्त्र हैं। ऐसे साहित्यकार, सर्जनहार एवं रचयिता "कोंकण केशरी" परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी को अन्तरंग भावों से अभिनन्दन । जिनकी पावन सानिध्यता, अप्रतिम वात्सल्य एवं स्नेह की छत्र छाया में, मैं धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की ओर, रत्नत्रयी का आराधक बनकर अग्रसित हो रहा हूँ। मुझे बाल्यकाल से ही आपका सतत् सानिध्य एवं मार्गदर्शन मिलता रहा है। ऐसे धर्म पुरुष के पावन चरणों में उनके ही कृतित्व को समर्पित करते हुए मैं आत्मतोष अनुभव कर रहा हुँ । मुनि लोकेन्द्रविजय " मार्तण्ड" *xwwwwim 福 Jain Education International जहाँ वितण्डावाद है, पूर्वाग्रह है, विद्वेष है और जहाँ मात्र मोह हो मोह है वहाँ धर्म के प्रति चाहे जितनी ललक दिखाई ३ पडे किंतु विशुद्ध धर्मज्ञान नही होता। www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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