SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षमा, स्वरूप और साधना - दर्शन रेखाश्री, जिस मनुष्य ने मनुष्य जीवन पाकर जितना अधिक आत्मविश्वास सम्पादित कर लिया है वह उतना अधिक शान्ति पूर्वक सन्मार्ग पर आरूढ़ हो सकता है, उसके लिए सर्व प्रथम ज्ञानी भगवन्तों ने मानव को क्षमा रखने का उद्देश दिया. क्षमा का स्वरूप:- क्षमा अमृत है, क्रोध विष है, क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है, क्षमा युक्त जो धार्मिक अनुष्ठान वगेरे करने में आते है वह भी सफलता को प्राप्त होते है जैसे कि तप, जप, संयम स्वाध्याय, ध्यान, योगानुष्ठान आदि में कितने ही विकट परिषह संकट उपसर्ग आये तो भी शान्तिपूर्वक उन्हें सहन करें, हृदय मन्दिर में पूर्ण क्षमा को धारण करें, क्षण मात्र भी क्रोध नही करे, क्षमा ही मानव जीवन को उज्जवल बनाती है, मानवता का विकास करती है, और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। क्रोध वेशी में दुराचारिता, दृष्टता, अनुदारता, परपीड़कता इत्यादि दुर्गुण निवास करते है। और वह सारी जिन्दगी चिंता, शोक और सन्ताप में घिर कर व्यतीत करता है, क्षण भर भी शान्ति से श्वास लेने का समय उसको नहीं मिल पाता, सदैव अशान्ति मय जीवन गुजारता है इसलिये क्रोध को पूर्णतया नष्ट कर क्षमा को अपना लेना चाहिए, शास्त्रकार भगवन्तोंने हमारे लौकिक पर्व पर्युषण महापर्व के अन्तर्गत श्रावक श्राविकाओंको मुख्य रूप से विशेषतः पाँच कर्तव्यों का पालन करने का उद्देश्य दिया है, वे पाँच कर्तव्य इस प्रकार है १ अमारी प्रवर्तन २ साधर्मिक भक्ति ३ अठ्ठम की तपस्या ४ चैत्यपरीपाटी और पाँचवा अन्तिम कर्तव्य बताया है ५ क्षमापना इन कर्तव्यों का हमें उपदेश प्रसाद महाग्रन्थ से बहुत कुछ जानने को मिलता है परन्तु मुख्य रूप से संक्षेप में दो बातें अपनाने पर भी मन की मलिनता दूर हो जाती है। वे दो बाते है "नमामि सव्व जिनानाम" सर्व जिनेश्वर देवों को नमस्कार करता हुँ । "खमामि सव्व जिवानाम" सर्व जीवात्माओं के साथ क्षमापना कर उनका सत्कार करता हुँ। "नमस्कार" और "सत्कार" इन दो बातों को जीवन में आचरित करने से और साधना करने से दो प्रकार के लाभ साधक को हो सकते है, साधक को साध्य प्राप्ति भी इसीसे होती है। १ सर्व जिनेश्वर देवों की वन्दना करने से आत्मा का सहज स्वाभाविक विशुद्ध सम्यगदर्शन गुण निर्मल बनता है और जीवात्मा को समक्ति की प्राप्ति होती है २ जिन दर्शन से आत्मा के ऊपर से मिथ्यात्व रूपी कर्मों का घर्षण मिटकर स्वस्वरूपॉलब्धि का दिग्दर्शन होता है, परन्तु इन हेतुओं की पूर्ति के लिए क्षमा स्वरूप और साधना की आवश्यकता है। इसलिये प्रत्येक जीवात्मा को जीनालम्बन को स्वीकार कर साकर और निराकार भाव से ध्यान करना चाहिए। क्षमा के स्वरूप को विशद रूप से समझाते हुए परम पूज्य हेमचन्द्र आचार्य और पूज्य हरिभद्र सूरिने अपने ग्रन्थ की रचना में लिखा है कि..... इस भूमण्डल में भ्रमण करते हुए प्रत्येक जीव के साथ भव-भवान्तर में नाना प्रकार से अनेक विध सम्बन्ध बन्धे हुए है, जिससे किसी प्राणी के साथ ज्ञान अथवा अज्ञान एवं प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अज्ञानवश रागवश द्वेशवश, क्रोधवश, मानवश, मायावश, लोभवश Jain Education International विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो यह हैं मन को वश में करना। For Private & Personal Use Only ३१३ www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy