SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है। दो हजार वर्ष पूर्व जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने धन के संचय की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए कहा था - "यदि जीवन में पाप का निरोध हो गया हो तो वह निष्पाप-जीवन ही सबसे बड़ी सम्पदा है। फिर अन्य किसी सम्पदा का कोई अर्थ नहीं है। और यदि जीवन में पाप का आस्रव हो रहा हो, हमारा आचरण पापमय हो, तो किसी भी सम्पदा से हमारे जीवन का उत्कर्ष होने वाला नहीं है। पाप के साथ आने वाली सम्पत्ति हमें दुर्गति के गर्त में ही ले जायेगी। ऐसी स्थिति में सम्पदा से क्या प्रयोजन? " यदि पाप-निरोधीऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम्। यदि पापासवोऽस्ल्य सम्पदा किं प्रयोजनम्। रत्नकरण्ड श्रावकाचार/२७ धन से जहाँ तक हमारी आवश्यक्ताओं की पूर्ति होती हो उसी हद तक वह हमारे लिये उपयोगी है। जो धन आवश्यक्ता की पूर्ति नहीं कर पा रहा हो वह निरर्थक है। इसी प्रकार आवश्यक्ता से अधिक धन का भी कोई उपयोग नहीं है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उतनी ही सम्पत्ति संकलित करने को उचित ठहराया है जितने से हमारे सांसारिक दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह हो सके। परिग्रह-परिमाण नामके पाँचवें अणुव्रत को "इच्छा-परिमाणवत" कहकर जैनाचार्यों ने भी यही कहा है कि व्यक्ति को अपनी इच्छाएं सीमित करके, उनकी पूर्ति के अनुरूप परिग्रह रखना चाहिये। उसके अधिक सम्पत्ति के प्रति उसे कोई व्यामोह या आकाँक्षा नहीं रखनी चाहिये। सामान्य गृहस्थ के लिये सुखी जीवन बिताने का एक ही उपाय कहा गया है कि वह अपनी आय के भीतर व्यय का संयोजन करके उसी में अपना काम चलाने का संकल्प ले। यदि आय से अधिक व्यय की आदत होगी तो नियम से जीवन में अशांति और असंतुलन रहेगा। आय से अधिक व्यय न हो, उसके भीतर ही जीवन यापन किया जा सके यह एक कला है। इसके माध्यम से जीवन में आनन्द का विस्तार होता है और पूरा परिवार शांति का अनुभव करता है। नीतिकारों ने इसी कला को पाण्डित्य कहा है, इसी को वचन-कौशल कहा है। इतना भर नहीं, उन्होंने गृहस्थ के लिये इसे सबसे बड़ा धर्म कहकर इस कला की सराहना की है इदमेव हि पाण्डित्वं, इयमेव विदग्धता, अयमेव परोधर्मः यदायानाधिको व्यवः । -नीतिवाक्यामृत/१०८ रहीमने भी अपने खुदा से यही याचना तो की थी कि - "जितने में मेरे परिवार का पेट भर जाय, अतिथि का सत्कार कर सकू और मुझे भी भूखा नहीं सोना पड़े, ओ खुदा! बस, मेरे लिये इतना ही पर्याप्त है। यही मेरी आरजू है।" साई इतना दीजिये, जामें कुटुंब समाय, मैं भी भुखा ना रहूं, साधु न भुखा जाय। -रहीम २८० संसार में ऐसे भी पुरुष है जो आपत्ति के आंधी-तूफान का पान कर लेते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy