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________________ "There are two tragedies in life. One is not to get your heart's desire. The other is to get it." George Bernard Shaw बात खोने की हो या पाने की इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दोनों ही परिस्थितियों में मनुष्य के मन में संक्लेश ही उपजते हैं। उन्हीं संक्लेशों की पीड़ा उसे भोगना पड़ती है। वह जितना सम्पत्तिशाली होता जाता है, उसकी यह पीड़ा उसी अनुपात से बढ़ती जाती है।। जैनाचार्य गुणभद्रस्वामी ने अपने ग्रंथ में लिखा है - "संसार में हर प्राणी के भीतर तृष्णा का इतना बड़ा गड्ढा है कि यदि उसमें विश्व की सारी सम्पदा डाल दी जाय, तब भी वह भरेगा नहीं, खाली ही रहेगा। ऐसी स्थिति में किसे, क्या देकर संतुष्ट किया जा सकता है? विषयों की आशा और तृष्णा सदैव उन्हें दुखी ही करती रहेंगी। तष्णागत: प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य किं कियदायाति, वृथा वो विषयैषिता। -आचार्य गुणभद्र/आत्मानुशासन भोग आकांक्षाओं की तृप्ति के लिये विचारकों ने तीनों लोकों की सम्पत्ति को भी अपर्याप्त माना है। अन्त में संतोष रूपी अमृत का पान करने पर ही ज्ञान के आनन्द की उपलब्धि स्वीकार की गई है। भोगन की अभिलाष हरन कौं त्रिजग सम्पदा थोरी, या ज्ञानानन्द "दौल' अब पियौ पियूष कटोरी। -दौलतराम अध्यात्म पदावली तथा गीता में भी कर्म-बन्ध से बचनेका उपाय बताते हुए यही कहा गया कि - "जो कुछ सहजता से प्राप्त हो जाय उसमें संतुष्ट रहनेवाला, हर्ष और शोक आदि द्वन्दों से रहित तथा ईर्ष्या से रहित ऐसा साधक जो अपने अभिप्राय की सिद्धि और असिद्धि में समता-भाव धारण करता है, वह कर्मो को करता हुआ भी कर्म-बन्ध नहीं करता" यद्दच्छालाभ संतुष्टो द्वन्द्वातीत: विमत्सर: सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते। -गीता/४-२२ वर्तमान समाज व्यवस्था में धन-सम्पत्ति को बहत अधिक महत्व प्राप्त हो गया है। आज का समाज-दर्शन तो यह हो गया है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है। वही विद्वान् है और वही गुणवान् है। धनवान ही कुशल वक्ता है और वही दर्शनीय, भव्य व्यक्तित्व वाला है, क्यों कि सारे गुण धन के आश्रय से ही रहते हैं यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन:, स पण्डितः, स श्रुतवान् गुणज्ञः, स एव वक्ता, स च दर्शनीय, सर्वे गुणा: कांचनमाश्रियन्ति। फिर जहाँ ऐसी ही सामाजिक स्वीकृति धन को मिली हो, वहाँ उसके उपार्जन के लिये एक पागलपन भरी दौड़ यदि समाज के सभी वर्गों में चल रही हो तो यह अस्वाभाविक तो विश्व में, तीनों लोकों में ददि कोई महामंत्र है तो वह है मन को वश में करना। २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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