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________________ है। परमाणु जड अचेतन होता हुआ भी गतिधर्म वाला है। उस की गति पुद्गक प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी है। वह सर्वदा गतिमान रहता हो गति करता रहता हो, ऐसी भी बात नहीं है। किन्तु कभी करता है और कभी नहीं करता है। यह अगतिमान निष्क्रिय परमाणु कब-गति करेगा। यह अनिश्चित है। इसी प्रकार सक्रिय परमाणु कब गति और कब क्रिया बन्द कर देगा, यह भी अनियत है। परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है। पुद्गल के दो भेद है- परमाणु और स्कन्ध! स्वभाव पुद्गल और विभाव पुद्गल! पुद्गल के चार प्रकार भी है वे नाम इस प्रकार है। १-स्कन्ध! ३-स्कन्ध प्रदेश! २-स्कन्ध देश। ४- परमाणु! १-स्कन्ध- दो से लेकर यावत् अनन्त परमाणुओं का एक पिण्ड रुप होना "स्कन्ध" है। कम से कम दो परमाणु ओं का स्कन्ध होता है। जो द्विप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है। कभी-कभी अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। इस महास्कन्ध की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य सर्वगत है। २-स्कन्ध देश- स्कन्ध एक इकाई है। उस ईकाई का बुद्धि कल्पित एक भाग स्कन्ध देश कहलाता है। ३- स्कन्ध प्रदेश- प्रत्येक स्कन्ध की मूलभूत मित्ति "परमाणु' है। जब तक वह परमाणु स्कन्धगत है। तब तक वह स्कन्ध प्रदेश कहलाता है। ४- परमाणु- पुद्गल का सब से सूक्ष्मतम अंश, अविभाज्य अंश "परमाणु" है। जब तक वह स्कन्धगत है, तब तक वह प्रदेश है और स्कन्ध से अलग होने पर वह परमाणु कहलाता निष्कर्ष रुप में यही कहा जा सकता है कि जो जीव संसारस्थ है, वह कर्म बद्ध है, उस जीव का पुदगल के अवश्य सान्ध रहा है। अत: जीव को पुद्गल१४ भी कहा है। ३-४-पुण्य और पाप = जो आत्मा को पवित्र करता है, वह पुण्य है और जो आत्मा को अपवित्र करता है। वह पाप है। पुण्य शुभ कर्म है, पाप अशुभ कर्म है।१५ आत्मा की वृत्तियाँ अगणित है। इसलिये पुण्य-पाप के कारण भी अगणित हैं।- प्रत्येक प्रवृत्ति यदि शुभ रुप है तो पुण्य का कारण बनती है। और प्रवृत्ति यदि अशुभ रुप है तो पाप का कारण बन जाती है। फिर भी त्या व्यावहारिक दृष्टि से उन में से कुछ एक कारणों का१६ संकेत किया जा रहा हैं। पुण्य के नौ भेद है। उन के नाम ये है। १- अन्न पुण्य! ९ नमस्कार पुण्यास्त्र पुण्य ! २- पान पुण्य १ ६- मन पुण्य! ३- लधन पुण्य! ७-वचन पुण्य! ४- शयन पुण्य! ८- काय पुण्य! अशुभ कर्म और उदय में आये हुए अशुभकर्म पुद्गल को पाप कहते है। पाप के कारण भी असंख्य है। फिर भी संक्षेप दृष्टि से पाप के अठारह भेद है। उन के नाम इस प्रकार है। १४-भगवती सूत्र-८/१०/३६१!, १५-भगवती सूत्र-८/३,४!, १६-स्थानांग सूत्र स्थान-९ उहे ३! संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है तो वह है मात्र धर्म। २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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