SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सब द्रव्य आकाश में अवस्थित है। आकाश के दो भेद है-लोकाकाश और अलोका-काश! जितने क्षेत्र में रहेते है, वह लोकाकाश है। शेष सब अलोकाकाश है। ४-काल-जो द्रव्यों की नवीन-पुरातन आदि अवस्थाओं को बदलने में निमित्त रुप से सहायता करता है। वह काल द्रव्य है। ५-पुद्गलास्तिकाय- "पुद्गल" यह जैन दर्शन का पारिमाषिक शब्द है। उक्त शब्द पारिभाषित होते हुए रुद नहीं, किन्तु व्यौत्पत्तिक है। पूर्ण स्वभाव से पुत और गलन स्वभाव से गल इन दो अवयवों के मेल से पुद्गल शब्द बना है, यानी पूरण और गलन को प्राप्त होने से पुदगल अन्वर्थ संज्ञक है। "पुदगल' शब्द को विशेष अर्थ है। जो पुद + गल इन दो शब्दों के मिलने से बनता है। विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ है, वे मिल-मिल के बिछुडते हैं और बिछुड-बिछुड कर फिर मिलते है। जुड/जुड़ कर टूटते हैं और टूट-टूट कर फिर जुडते है। इसीलिये उन्हें पुद्गल कहा है। "पुद्गल' में वर्ण गन्ध रस१२ और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते है। अतएव वह मूर्त है। गलन और मिलन स्वभाव को इस प्रकार समझा जा सकता है स्कन्धों में से कितने ही परमष्णु दूर होते है। और कितने ही नवोन परमाणु जुडते है। मिलते है। जब कि परमाणु में से कितनी ही वर्णा दि पर्यायें विलग हो जाती है। हट ११- चत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन-५ सूत्र - १८! जाती हैं। और कितनी आकर मिल जाती हैं। इसीलीये सभी स्कन्धों और परमाणुओं को पुदगल कहते है। और उन के लिये "पुद्गल" कहना सार्थक, अन्वर्थक है। पुद्गल के३ उस सूक्ष्मतम अंश को परमाणु कहा जाता है। परमाणु स्कन्ध का वह विभाग है। जो विभाजित हो ही नहीं सकता! जब तक वह स्कन्धगत है, तब तक वह स्कन्ध प्रदेश कहलाता है। और अपनी पृथक् अवस्था में परमाणु पुद्गल अविभाज्य है अच्छेद्य है, अभेद्य है, अदाहय है, और अग्राहय है। किसी भी उपाय, उपचार और उपाधि से उस का विभाजन नहीं हो सकता! परमाणु पुद्गल अनर्ध हैं अमध्य है, अप्रदेशी है। उस की न लम्बाई है, न चौडाई है। न उंचाई है, न गहराई है। यदि वह है तो स्वयं इकाई है। सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं ही आदि, मध्य और अन्त है। निष्कर्ष रुप में यह भी कह सकते है कि सब द्रव्यों मे जिस की अपेक्षा अन्य कोई अनुत्तर न हो, परम अत्यन्त अणुत्व हो, उसी को परमाणु काहा जाता है। यह सुस्पष्ट तथ्य परमाणु-परमाणु के बीच ऐसी कोई भेद रेखा नहीं है। कि एक परमाणु दूसरे परमाणु रुप न हो सके! कोई भी परमाणु कालान्तर में किसी भी परमाणु के सदृश-विसदृश हो सकता १२- क हरिवंश पुराण ७/३६ ! ख- न्याय कोष पृष्ठ-५०२! ग-तत्वार्थवृत्ति -५/१! घ-तत्वार्थ सूत्र- ५/२३! ड-तत्वार्थ वृर्तिक-५/१/२८! १३-सर्वार्थ सिद्धि टीका -सूत्र ५/२५! २५६ दुष्ट-दुर्जन व्यक्ति मरते समय भी, अंतिम क्षण तक अपनी दुष्टता नहीं छोडते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy