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________________ प्राणायाम, जप-जाप, स्नान-ध्यान, अथवा प्रयास को प्राय: साधना कहा जाता है। अमुक परिस्थितियों में इस प्रकार की विशिष्टताएँ भले ही उपयोगी हों; किन्तु इस प्रकार मनुष्य सहजता से टूटता जाता है और परिणामत: विश्व-प्रकृति से एकरूप नहीं हो पाता। संत कबीर ने 'सहज समाधि' की बात कहा है। लगता तो यह है कि जीवन में सहज होना ही अत्यन्त कठिन है। असामान्य या कठिन मार्ग अपनाना अपेक्षाकृत आसान प्रतीत होता है। कोरी स्लेट पर बिल्कुल सीधी रेखा खींचना ही कठिन है। जंगल में सीधे बिरवा बहुत कम होते हैं। हमारा जीवन भी अनेक वक्रताओं का घर है। वक्रताओं को मिटाने का नाम ही सहजता है। मंदिर में जाकर मूर्ति के आगे साष्टांग नमन करना हमारे लिए कठिन नहीं है। पर शयन की सहज क्रिया को ही प्रभु-नमन मानना बड़ा कठिन है। विश्व के साथ तादात्म्य स्थापित करने या विश्व में अपने को लीन करने के लिए हमारी भूमिका नदी के प्रवाह की भांति होनी चाहिए कि वह सागर की ओर सहज बही चली जाती है। अंकुर सहज वृक्ष बनता चला जाता है। साधना का भार ढोने पर तो हम श्रमिक ही रह जाते हैं, श्रमण नहीं बन पाते। शरीर के अंग अपना कार्य कितनी सहजता से करते हैं कि उनके लिए हमें सोचना भी नहीं पड़ता। हम बालक से तरूण और तरुण से प्रौढ वृद्ध होते जाते हैं; परन्तु पता नहीं चलता कि यह सब कैसे घटित हो जाता है। तो साधना हमें करनी है सहजता की, ऋजुता की, भार-विहीन होने की, और तभी हमारा यह तन आत्म-दीपक से ज्योतिर्मान होकर हमें वहाँ पहुँचा सकता है जहां आत्मा की अन्तिम परिणा है। अन्त में मैं अपनी बात विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इन शब्दों के साथ समाप्त करूंगा कि "प्रश्न यह है कि हम जगत को, जो आनन्द का पूर्ण उपहार है, किस रीति से स्वीकार करते हैं। क्या हम इसे अपने उस हृदयमन्दिर में स्थान देते हैं जहाँ हम अपने अमर देवताओं का प्रतिष्ठान करते हैं। साधारणतया हम विश्व की शक्तियों का प्रयोग करके अधिक-से-अधिक शक्ति संग्रह करने में व्यग्र रहते हैं। विश्व के अक्षय भंडार से हम यथाशक्ति अधिकाधिक पाने की प्रतियोगिता में लड़ते-झगड़ते जीवन बीता देते हैं। क्या यही हमारे जीवन का ध्येय है? हमारा मन केवल जगत् का उपभोग करने की चिन्ता में व्यस्त रहता है-इसी से हम इसका सचा मूल्य नहीं पहचान पाते, हम अपनी भोग-कामनाएँ और विलासी चेष्टाओं से इसे सस्ता बना देते हैं और अंत में हम इसे केवल अपनी पूर्ति का साधन मान बैठते हैं और उस नादान बालक की तरह जो पुस्तकों के पन्ने फाड़-फाड़ कर रखते हुए आनन्दित होता है, प्रकृति की उधेड़बुन में ही जीवन का आनन्द समझ बैठते हैं। उसका असली मूल्य हमारे लिए उसी तरह रहस्य बना रहता है, जिस तरह उसके पन्नों से खेलने वाले बच्चे के लिए पुस्तक का ज्ञान।". • मनुष्य ही नहीं, पशु जाति-वानर सेना के सम्मुख भी उस की वैज्ञानिक शक्ति, उसके भयानक अस्त्र-शस्त्र और उसकी पाशविक-दानविक शक्ति भी तनिक कार्य नही साध सकी। २४८ प्रभू के दरबार में अकिंचन यात्रालुओं का अपूर्व स्वागत सत्कार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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