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________________ गये। मूल बात यह है कि आश्रय -व्यवस्था निर्माण करके मनुष्य जीवन को चार खंडों में विभाजित करने की कल्पना ज्ञान अथवा साधना के मार्ग में सहायक नहीं होती। वह तो एक सामान्य एवं स्थूल विधान मात्र है जिसके पीछे मानवीय ज्ञान-शक्ति की अवहेलना है। प्रारम्भ के २५ वर्षों तक ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का विधान मनुष्य को आगे भोग में ले जाता है। जबकि जैन-साधना के अन्तर्गत ब्रह्मचर्यव्रत का विधान एक बार स्वीकार करने बाद अत्याज्य है और इसी कारण वह मनुष को 'योग' की ओर ले जाता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संकेत किया है कि 'जीवन एक अमर जवानी है, उसे उस आयु से नफरत है जो इसकी गति में बाधक हो, जो दीपक की छाया की तरह जीवन का पीछा करती है। हमारा जीवन नदी की धारा की लहरों की तरह अपने तट से छूता है, इसलिए नहीं कि वह अपनी सीमाओं का बन्धन अनुभव करे, बल्कि इसलिए कि वह प्रतिक्षण यह अनुभूति लेता रहे कि उसका अनन्त मार्ग समुद्र की ओर खुला है। जीवन ऐसी कविता है जो छन्दों के कठोर अनुशासन में चुप नहीं होती, बल्कि इससे अपनी आंतरिक स्वतन्त्रता और समता को और भी अधिक प्रकट करती है।" _ -(साधना, पृष्ठ ६२-६३) साधना का क्षेत्र-विस्तार असीम है, अनन्त आकाश की भांति। किसी भी एक क्षेत्र या विषय में साधना की ओर बढ़ने पर प्रत्येक जागरूक व्यक्ति अपने को नितान्त अल्प या शून्य ही पाता है। जीवन भर डुबकियाँ लगाने पर भी अन्तत: लगता है कि अभी तो विराट के एक बिन्दु का भी स्पर्श नहीं हुआ है। बोलने को तो हम रात-दिन बोलते रहते हैं, लेकिन यथार्थत: बोलने की विशेषताओं या गरिमा से हम अन्त तक अपरिचित ही रह जाते हैं। सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांग सूत्र में साधु की आहारचर्या विषयक निर्देशों को देखने से ज्ञात होता है कि साधु के लिए आहार प्राप्त करना अहिंसा की दृष्टि से एक साधना ही है। पांचों इन्द्रियों से तथा विभिन्न शारीरिक अवयवों से निरन्तर काम लेते हुए भी और यह जानते हुए भी कि इनका क्या उपयोग एवं लाभ है, हम इनके प्रति कितने अनजान रह जाते है? साँस के बिना जीवन पलभर भी नहीं चल सकता, किन्तु क्या हम श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं अथवा विधियों से परिचित रहते है? यह जानना ही तो साधना है। साधना की दिशा में कदम रखने का अर्थ है संकल्प करना, एकाग्र होना, अपनी समस्त शक्तीयों को केन्द्रित करना ताकि उपलब्धि का बीज अंकुरित हो सके, वह कठोर अवरोध को भेदकर ऊपर उठ सके और विशाल वृक्ष बन सके। संकल्पपूर्वक सिद्धि ही साधना फल है। यही बीज की स्वतन्त्रता है। हमारे शरीर में परिव्याप्त चेतना विश्वव्यापिनी शक्ति समाहित किये हुए है; वह विश्व से तुच्छ या लघु नहीं है। उसमें सम्पूर्ण विश्व समाहित है। बूँद छोटी अवश्य है, पर सागर से भिन्न नहीं है। किसी भी प्रकार की साधना का मूल आधार शरीर होता है। शरीर की सहायता से ही साधना फलवती होती है। साधना से शरीर सक्षम बनता है और शरीर की क्षमता से चेतना में तेजस्विता आती है। जब आत्मा तेजस्वी होती है तो यह तन परमात्मा का मंगलधाम बन जाता है। शरीर के प्रति आसक्ति न रखना आवश्यक है, लेकिन उसके प्रति शत्रुता भी अनुचित है। जो लोग शरीर को सताने में साधना देखते है, वे केवल बोझ ही ढोते है। विशिष्ट अवस्था, विशेष आसन, विशिष्ट प्रकार का आहार-विहार, रहन-सहन, वेश, व्यायाम, प्रायश्चित की अग्नि से जो विशुद्ध बन जाता है, वह ही महामानव परम शुद्ध परमात्मा (वीतराग) बन जाता है। २४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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