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________________ शरीर का संयम महत्त्वपूर्ण होगा। शरीर का संयम होता है तो चंचलता कम होती है। आसन करने से, पद्मासन में बैठने से शरीर को कष्ट होता है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना, आने वाले सारे तापों को सहना शरीर को कष्ट देना है। यदि आत्मा का कर्तृत्व और भौक्तृत्व नही है तो सहने की कोई जरुरत नहीं है। सुख-दु:ख को करने वाली आत्मा है इसलिए सहना आवश्यक है। आत्मलक्षी होना शरीरलक्षिता को कम करना है। इससे सहन करने की बात स्वत: फलित होती है। दर्शन की दो धाराएं दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं है - एकात्मवाद और अनेकात्मकवाद। कुछ दर्शनों का मत है-आत्मा एक है। जैन दर्शन अनेकात्मवादी है। उसके अनुसार आत्मा अनंत है, प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई आत्मा ईश्वर का अंश नही है, ब्रह्म का अंश नही है और न कोई माया या प्रपंच है। हर आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। संख्या की दृष्टि से अनंत-अनंत आत्माएं है और उन सबका अपना-अपना कार्य है। अकेली आत्मा जन्म लेती है, अकेली आत्मा मरती है और अकेली आत्मा अपने सुख:दुख का संवेदन करती है। उसका कोई हिस्सा नहीं बंटाता, उसमें कोई भागीदार नहीं बनता। सब कुछ अपना होता है। हो सकता है-इससे स्वार्थवाद के पनपने की संभावना की जा सके। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और सब कुछ अपना-अपना है, अपना सुख और अपना दु:ख, अपना संवेदन और अपना ज्ञान, अपना जन्म और अपनी मृत्यु-यह नितान्त स्वार्थवाद है। अपनी ही चिन्ता करो, दूसरों की चिन्ता करने की कोई जरुरत नहीं। अपना किया कर्म अपने को भोगना है, दूसरा कोई बीच में नहीं आता। अच्छा करता है तो अच्छा भोगता है और बुरा करता है तो बुरा भोगता है। न बाप काम आता है, न माता काम आती है, न भाई काम आता है, न और कोई काम आता है। इससे स्वार्थवादी भावना पनपेगी बस, अपना करो और अपना भोगो, दूसरों से क्या लेना-देना। प्रत्येक व्यक्ति सोचेगा-मैं दूसरे के लिए क्यों करूं? दूसरे के लिए क्यो कर्म बांधू? मेरा कर्म मुझे भुगतना है। एक ओर ग्वार्थवाद का यह स्वर मिलता है तो दूसरी और स्वर मिलता है महायान का - जब तक सब जीवों की मुक्ति नहीं होतीं, तब तक मैं मोक्ष में जाना नहीं चाहता। एक ओर सबकी मुक्ति का विचार और दूसरी ओर अपनी मुक्ति का विचार। मुझे मुक्त होना है, दूसरे की दुसरे जानें, मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अपनी मुक्ति का विचार और समष्टि की मुक्ति का विचार - दोनो दृष्टिकोणो में बड़ा अन्तर है। वास्तविक सचाई क्या है? क्या यह मान लिया जाए- स्वतंत्र या प्रत्येक आत्मा की भावना ने मनुष्य में स्वार्थ की भावना पैदा की है, मनुष्य स्वार्थी बना है? इसकें दो पहलू हैं-दार्शनिक और व्यवहारिक। दार्शनिक पहलू के आधार पर कहा गया-आत्मा नहीं है। व्यवस्था की दृष्टि से नाना आत्माएं है। हमारे सामने एक आत्मा नही है। एक आत्मा है, यह दार्शनिक प्रकल्पना है। व्यक्ति के सामने असंख्य आत्माएं है। हर मनुष्य की अपनी आत्मा है, हर पशु की अपनी आत्मा है। प्रश्न हुआ-यह कैसे? इस प्रश्न को समाहित करने के लिए एक पूरे मायावाद या प्रपंचवाद की कल्पना की गई। कहा गया-वास्तव में आत्मा एक है किन्तु अनेक आत्माएं जो दिखाई दे रही है, वह २०२ अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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