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________________ संदर्भ दु:ख का एक साधक ध्यान की मुद्रा मे खड़ा था। उसे देखते ही एक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की आग मभक उठी। उसने सोचा-यह कैसा आदमी है। मेरी कन्या के साथ इसकी शादी निश्चित की गई और यह उसे छोडकर सन्यासी बन गया। इस चिन्तन से उसके प्रतिशोध की आग अत्यधिक तीव्र बन गई। उसने सोचा - इसे अभी मार डालूं। पास ही श्मशान में आग जल रही थी। समीपस्थ तालाब में गीली मिट्टी थी। वह मनुष्य मिट्टी ले आया और उसने साधक के सिर पर पाल बांध दी। उस पाल में उसने जलते हुए अंगारे लाकर रख दिए। __हम इस भाषा में सोचेंगे-उसने साधक को कितना दु:खी बना दिया किन्तु जिसे दु:खी बनाया गया, वह क्या सोचता है-यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह आत्मलीन बन गया। वह परम ज्ञान एवं परम आनन्द भोग रहा है। कैवल्यज्ञान की प्राप्ति, मोहनीय कर्म का विलय और अनंत आनन्द उसमें प्रकट हो गया। वह सुख में डूब गया। बाहर से देखने वाला सोचता है - बेचारा कितना दु:खी है और करने वाला समझता है मैंने प्रतिशोध ले लिया, बदला ले लिया, दु:खी बना दिया। इन दोनों में कहीं कोई तालमेल नहीं है। दूसरा आदमी दु:ख की सामग्री जुटा सकता है पर किसी को दु:खी बना नहीं सकता। दुःखी होना अपने हाथ में है। जैन दर्शन का प्रसिध्द सूत्र है - 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण या सुहाण य' - सुख दुःख की कर्ता और विकर्ता अपनी आत्मा है। यदि दूसरा कर्ता होता तो यह सिद्धांत गलत हो जाता है। किन्तु यह सिध्दान्त सही है, दूसरा कोई कर्त्ता नहीं है। कर्ता अपनी ही आत्मा है। संदर्भ सुख का सुख के संदर्भ में भी यही तथ्य सत्य की कसौटी पर खरा उतर सकता है। एक व्यक्ति बहुत उदास था, बहुत दु:खी था। उसे संवाद मिला था कि तुम्हारा जवान लड़का मर गया है। नौकर उसके दु:खी एवं उदास होने का कारण नहीं समझ पाए। उन्होंने सोचा - आज स्वामी उदास कैसे? वे हर सुविधा जुटाना चाहते थे उदासी मिटाने के लिए। गर्मी का मौसम था, पंखा चला दिया, वातानुकूलन शुरू हो गया। पीने के लिए ठंडा पेय सामने रख दिया। जितनी सुविधा जुटाई जा सकती थी, वे सारी जुटा दी, किन्तु उदासी नहीं मिटीं। वह भोजन करता है, सारी बदिया सामग्री सामने पड़ी है, पर मन में भयंकर दु:ख और कष्ट है। सारी सुविधा की सामग्री और सुख की सामग्री होने पर भी वह बड़ा दु:खी है, बेचैन है। कोई किसी को सुखी बना नहीं सकता। दूसरा केवल सुख-सुविधा की सामग्री जुटा सकता है। ग चिन्ता है शरीर की कोइ पैदल चलता है तो दूसरा कहता है - देखो! बेचारा शरीर को कितना सता रहा है। एक व्यक्ति गर्मी में बैठा है, पंखा नहीं चलता है तो देखने वाला कहता है शरीर को कितना सताया जा रहा है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना और कष्ट को सहना, इसका अर्थ हो गया शरीर को सताना। 'शरीर को सताया जा रहा है-इसकी चिन्ता है किन्तु आत्मा को सताया जा रहा है-इसकी कोई चिन्ता नहीं है। व्यक्ति का सारा दृष्टिकोण शरीरलक्षी है। साधना का सूत्र है आत्माभिलक्षी होना। आत्मा के कर्तृत्व और आत्मा के भोक्तृत्व से साधना का यह सूत्र फलित हुआ। आत्मलक्षी दृष्टिकोण में जहां प्रेम, करुणा, वात्सल्य और साधुत्व है उसी की जय होगी। २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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