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________________ द्वन्द्व और उनका निवारण डा. रामनारायण एवं डा. रज्जन कुमार..... प्रवक्ता, पार्श्वनाथविद्यापीठ, वाराणसी. द्वन्द्व मनुष्य की एक प्रमुखं मनोवैज्ञानिक समस्या है। मनुष्य मार्क्स (१९७६) के शब्दों में द्वन्द्व को एक ऐसी परिस्थिति के रूप को जीवन के प्रारंभ से ही द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। द्वन्द्व में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें परस्पर विरोधी प्रेरक उत्पन्न होने के कई कारण हैं जिनमें से एक कारण कुण्ठा भी है। सक्रिय होते हैं, जिसमें सभी की पूर्ति नहीं की जा सकती है। कण्ठा द्वन्द्व का रूप उस समय ले लेती है, जब व्यक्ति विभिन्न लैजारस के शब्दों में-दन्द उस समय उत्पन्न होता है. जबकि परिस्थितियों के बीच समायोजन का प्रयास करता है और उसमें एक व्यक्ति को दो असंगत अथवा पारस्परिक रूप से विरोधी वह सफल नहीं हो पाता है। मनुष्य की अनेक इच्छाएँ, आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रायः एक ही समय पर पूरा करना आवश्यकताएँ तथा रुचियाँ होती हैं किन्त यह जरूरी नहीं कि होता है, अथवा जब विवश होकर एक आवश्यकता की पूर्ति उसकी सभी इच्छाएँ व आवश्यकताएँ पूरी ही हो जाएँ। इन सबके करने पर दूसरी आवश्यकता की पूर्ति कर पाना असंभव ही हो कारण एक ऐसा वातावरण बन जाता है जिसकी परिधि में वह जाता है। उलझ जाता है। वातावरण की इस परिधि में मनुष्य को कुछ विरोधी शक्तियों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण द्वन्द्व का अर्थ है-विपरीत विचारों, इच्छाओं, उद्देश्यों का उसके मन में संघर्ष उत्पन्न होता है और यही संघर्ष द्वन्द्व का विरोध। जनक बन जाता है। रच (१९६७) ने भी कहा है - "जब कोई व्यक्ति दो में से कोई संघर्ष के अनेक रूप हो सकते हैं- जैसे- एक व्यक्ति का लक्ष्य चुनने को बाध्य होता है या किसी एक लक्ष्य के प्रति दूसरे से संघर्ष, व्यक्ति का उसके वातावरण से संघर्ष, पारिवारिक । विधेयात्मक या निषेधायात्मक भाव रखता है तो उसे द्वन्द्वसंघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष, आदि। इन सबसे कहीं अधिक गम्भीर कुण्ठा का सामना करना पड़ता है।" और भयानक है - आंतरिक संघर्ष। यह संघर्ष व्यक्ति के विचारों, मानसिक द्वन्द्व का अर्थ स्पष्ट करते हुए फ्रायड ने लिखा है संवेगों, इच्छाओं, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में होता है। कि 'इदम् अहम् और परम् अहम् के बीच सामंजस्य का अभाव संघर्ष का मुख्य आधार--उचित और अनचित का विचार होने से मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न होता है।' होता है। . उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि द्वन्द्व का द्वन्द्व की परिभाषा - द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व तथा कहीं-कहीं संघर्ष इन अनुभव व्यक्ति उस समय करता है, जब उसे दो वांछित लक्ष्यों में से किसी एक का चयन करना होता है, या किसी एक लक्ष्य तीनों का English अनुवाद Cinflict है तथा Conflict शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Conlictus शब्द से हुई है, जिसका अर्थ के प्रति उसकी धारणा विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों तरह है एक साथ टकराना। अतः द्वन्द्व का अर्थ एक ऐसी स्थिति से है, की होती है। इसके अतिरिक्त द्वन्द्व का अनुभव उन दशाओं में भी जिसमें दो आवेगों का एक समय पर ही पारस्परिक रूप से होता है, जिनमें लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं, टकराव व संघर्ष होता है। या यों कहा जाय कि द्वन्द्व की अवस्था परंतु व्यक्ति यह तय नहीं कर पाता है कि किस मार्ग का चयन उस समय उत्पन्न होती है, जब पर्यावरण में आवश्यकता की किया जाय या उपलब्ध लक्ष्यों में से सभी निषेधात्मक है, परंतु पूर्ति के लिए एक से अधिक लक्ष्य उपलब्ध होते हैं. परंत चयन किसी एक का चयन करना ही है। किसी एक ही का करना हो या एक ही लक्ष्य के प्रति व्यक्ति की द्वन्द्व का वर्गीकरण आवृत्ति विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों प्रकार की होती है। द्वन्द्वों का वर्गीकरण उनके स्रोतों व चेतन तथा अचेतन roine రంగసాగరసారం : రవారందరంగం Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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