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________________ -नीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासके अतिरिक्त अन्य कोई स्थान महावीर प्रभु के मंदिर के अधिकार जो सभी प्राचीन और सर्वांगसुंदर हैं। इनके प्रतिष्ठाकार देवसूरिजी, में नहीं है। शांतिसूरिजी और +++ सूरिजी आदि आचार्य हैं। कोरटावासियों का कहना है कि यदि दस-बीस हजार का खर्च उठाकर यहाँ की दूसरे दो प्राचीन जिनमंदिर जमीन को खोदने का काम कराया जाए तो सैकड़ों प्राचीन जिन गाँव से पश्चिम में धोलागढ़ की ढालू भूमि पर पहला मंदिर प्रतिमाएँ निकलने की संभावना है। श्री आदिनाथ का और दूसरा गाँव में उत्तर की ओर है। इन दोनों मंदिरों की स्तंभमालाओं के एक स्तम्भ पर 'ॐ नादा' अक्षर नया जैन मंदिर उत्कीर्णित हुए देखाई पड़ते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये मंदिर यह मंदिर कोरटाजी के पूर्व पक्ष पर अति विशाल, रमणीय नाहड के पुत्र ढाकलजी ने अपने श्रेय के लिए बनवाए होंगे। एवं शिखरबद्ध है। भूमि से निर्गत उपर्युक्त विशाल, प्राचीन और नाहड और सालिग के कुटुंबियों द्वारा कोरंटादि नगरों में सर्वाङ्गसंदर श्री ऋषभदेवस्वामी की प्रतिमा दो काउसगियों के नाहडवसहि प्रमुख ७२ जिनालय बनवाने का उल्लेख सहित विराजमान है। इस विशालकाय मंदिर की प्रतिष्ठा और उपदेशतरंगिणी के ग्रन्थकार ने किया भी है। इनमें प्रथम जिनालय इसी उत्सव में नवीन तीन सौ जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. की मण्डप स्तम्भमालाएँ यशोश्चन्द्रोपाध्याय के शिष्य पद्मचन्द्र १९५९ वैशाख श.१५ गुरुवार के दिन श्रीमद्विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी उपाध्याय ने अपनी माता सूरी और ककुभाचार्य के शिष्य भट्टारक महाराज ने की है। स्थूलिभद्र ने निज माता चेहणी के श्रेयार्थ बनवाई है, ऐसा दो स्तम्भों के लेखों से ज्ञात होता है। इन दोनों की प्राचीन मूलनायक राज्य-परिवर्तन प्रतिमाएँ खण्डित हो जाने से, उनको मंदिरों की भ्रमती में भंडार कोरटाजी जागीर पर प्राचीन समय में किस-किस राजा , दी गई और उनके स्थान पर एक ऋषभदेव प्रतिमा संवत् १९०३ सामंत एवं ठाकर का अधिकार रहा. यह बतलाना अति कठिन माघ श. ५ मंगलवार के दिन और दूसरी पार्श्वनाथ प्रतिमा सं. है। परंत प्राप्त सामग्रियों से जान पडता है कि इस पर भीनमाल १९५५ फाल्गुण कृ. ५ को प्रतिष्ठित एवं विराजमान की गई हैं। के राजा रणहस्ती वत्सराज, जयंतसिंह-उदयसिंह और चाचिगदेव प्रथम के प्रतिष्ठाकार सागरगच्छीय श्री शांतिसागरसूरिजी और का. चंद्रावती और आब के परमार राजाओं का, अणहिलवाड द्वितीय के सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्री विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी हैं। (पाटण) के चावडा और सोलंकियों का, नाडौल और जालोर प्राचीन मूर्तियों की प्राप्ति के सोनगरा चौहानों का, सिरोही के लाखावत देवडा चौहानों का, आंबेर और मेवाड़ के महाराणाओं का क्रमशः अधिकार रहा। सबसे प्राचीन जिस महावीर मंदिर का ऊपर उल्लेख किया सं. १८१३ और १८१९ के मध्य में उदयपुर महाराणा की कृपा और के मध्य में उदयप गया है, उसके परिकोष्ट का संभारकार्य कराते समय बायीं ओर से पाँच गाँवों के साथ कोरटा जागीर वांकली के ठाकुर रामसिंह र की जमीन खोदने पर दो हाथ नीचे सं. १९११ ज्येष्ठ शु. ८ के ' को मिली। गोडवाड़ परगना जब जोधपुर के महाराजा को मिला दिन पाँच फुट बड़ी सफेद पाषाण की अखंडित श्री ऋषभदेव तब महाराजा विजयसिंहजी ने सं. १८३१ जेठ कृ. ११ को भगवान की एक प्रतिमा और उतने ही बड़े कायोत्सर्गस्थ दो बिंब ठाकुर रामसिंह को कोरटा, बांभणेरा, ३ पोईणा, ४ नाखी, ५ एवं तीन जिन प्रतिमाएँ निकली थीं। कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं में पोमावा, ६ जाकोड़ा और ७ वागीण इन सात गाँवों की जागीर की एक संभवनाथ और दूसरी शांतिनाथ भगवान की है। इनकी सनद कर दी और अब तक उसी के वंशजों के अधिकार में रही है। प्रतिष्ठा सं. ११४३ वैशाख शु. २ गुरुवार के दिन बृहद्गच्छीय श्री विजयसिंहसूरिजी ने का है। इसी प्रकार संवत् १९७४ में नहरवा कोरटाजी तीर्थ का मेला नामक स्थान की जमीन से १३ तोरण और चार धातुमय जिन इस प्राचीनतम तीर्थ की समन्नति के लिए कणीपटी के प्रतिमाएँ निकली थीं। अब तक समय-समय पर कोरटाजी की २७ गाँवों के जैनों ने विद्वान् मुनिवरों की सम्मति मानकर कार्तिक कहानिया आसपास की जमीन से छोटे-बड़ी ५० प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं श. १५ और चैत्र श. १५ के दो मेले सं. १९७० से प्रारंभ किए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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