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________________ -तीन्द्रनन्ध - इतिहास"संवत् १६२८ वर्षे श्रावण शुदि १ दिने, भट्टारक-श्री ऐसा वृद्धप्रवाद है। इस कथन से इसकी समृद्धता एवं सम्पन्नावस्था विजयप्रभसूरीश्वरराज्ये, कोरटानगरे पण्डित श्री ५ श्री का तो सहज अनुमान हो सकता है। श्रीजयविजयगणिना उपदेशथी मु. जेता पुरसिंगभार्या, मु. कोरंटगच्छ १ महारायसिंग भा. सं. बीका, सांवरदास, को. उधरणा, मु. जेसंग, सा. गांगदास, सा. लाधा, सा. खीमा, सा. छांजर, सा. नारायण, जिस समय यह नगर अतीव सम्पन्न एवं प्रसिद्ध था, उस सा. कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुई ने श्री महावीर पबासण समय इसके नाम से 'कोरंटगच्छ' नामक गच्छ भी निकला था। बइसार्थो छे, लिखितं गणि मणिविजयकेशरविजयेन. वोहरा महवद वह विक्रमीय १६वीं शताब्दी तक विद्यमान था। इस गच्छ के सुत लाधा पदम लखतं समस्त सघंनइ मांगलिकं भवति शभं मूल उत्पादक आचार्यश्री कनकप्रभसूरिजी माने जाते हैं। उएसवंशभवतु।" स्थापक श्रुतकेवली श्रीरत्नप्रभसूरिजी के वे छोटे गुरुभ्राता थे। इस गच्छ के आचार्यों की प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ अनेक गाँवों में इस प्रतिमा के भी शिखा, कान, नासिका, लांछन, परिकर, पाई जाती हैं। वि.सं. १५१५ के लगभग इस स्थान में ही 'कोरंट हस्तांगुली और चरणांगुलियाँ खंडित हो गई थीं। अतः पूजने और तपा' नाम की एक शाखा भी निकली थी। मालूम होता है कि सुधारने के योग्य न होने से उसके स्थान पर नवीन महावीर यह गच्छ अपनी शाखा के सहित विक्रम की १८वीं शताब्दी में प्रतिमा वि. सं. १९५९ वैशाख शुदि १५ गुरुवार के दिन महाराज विलीन हो गया। इस समय इसका नामशेष ही रहा जान पड़ता है। श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी ने स्थापित की जो विद्यमान है और जयविजयगणि-स्थापित खण्डित प्रतिमा भी स्मृति के लिए एक ताम्रपत्र का पता गूढमण्डप में विराजमान रक्खी गई है। विक्रम संवत् १६०१ में जब माटुंगानिवासी ईगलिया नामक नवीन महावीर-प्रतिमा कोरटा के ठाकुर विजयसिंह के मरेठा मारवाड को लूटने के लिए आया था, तब वह कोरटा से समय में सियाणा (मारवाड़)-निवासी प्राग्वाट पोमाजी लुंबाजी एक ताम्रपत्र और कालिकादेवी की मूर्ति ले गया था। कहा ने बनवाई है। जो लगभग ७ फुट ऊँची है, और बहुत सुंदर है। जाता है कि वह ताम्रपत्र अब भी माटुंगा में एक महाजन के पास प्रतिष्ठा के समय जो एक छोटा प्रशस्ति-लेख लगाया गया था. है। कोरटा के महाजन प्रतापजी की बही में उक्त ताम्रपत्र से उससे जान पड़ता है कि महावीर-प्रतिमा कोरटाजी के रहने चौदह ककार उतारे गए हैं। वे इस प्रकार है-कणयापुरपाटण १, वाले ओसवाल कस्तूरचंद यशराज ने विराजमान की थी। हरनाथ कनकधर राजा २, कनकावती राणी ३, कनैयां कुवर ४, कनकेसर टेकचंद ने वीरमंदिर पर कलशारोपण किया था, पोमावा-निवासी मुता ५, कालिकादेवी ६, कांबीवाव ७, केदारनाथ ८, सेठ हरनाथ खमाजी ने ध्वजा और कलापुरा-निवासी ओसवाल ककुआतालाव ९, कलरवाव १०, केदारिया बांभण ११, रतनाजी के पुत्रों ने दण्डारोपण किया था। कनकावली वेश्या १२, किशनमंदिर १३, केशरियानाथ १४ । इन चौदह ककारों में से किसन (चारभुजा) का मंदिर कोरंटकनगर की प्राचीन जाहोजलाली गाँव के बीच में, कालिकादेवी और कुकुआतालाव गाँव के इस ग्राम के कोरंटपुर, कोरंटक, कोरंटी, कणयापुर, दक्षिण में, कांबीवाव और केदारनाथ गाँव से पौन मील पूर्वकोलापल क्रमशः परिवर्तित नाम मिलते हैं। वि.सं. १२४१ के दक्षिण कोण में, कलरवाव धोलागढ और बांभणेरा गाँव के लेखों में इसका कोरंट नाम सर्वप्रथम लिखा हुआ ज्ञात होता है। मध्य में तथा केसरियानाथबिंब कोरटाजी के नए मंदिर में इससे पूर्व के लेखों में यह नाम नहीं पाया जाता। उपदेशतरंगिणी विराजमान हैं। ग्रंथ से पता चलता है कि संवत् १२५२ में यहाँ श्री वृद्धदेवसूरिजी' किंवदन्ती है कि आनन्दचोकला के राज्यकाल में नाहड ने चौमासा कर के मंत्री नाहड़ और सालिग के पांच सौ कुटुंबी मंत्री ने कालिका मंदिर केदारनाथ खेतलादेवल महादेवदेवल को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इनके पहले भी कोरटनगर में और कांबीवाव इन पाँच स्थानों से संबंधित उनके भमिस्थल श्री वृद्धदेवसूरिजी ने तीस हजार जैनेतर कुटुम्बों को जैन बनाया था, 1, महावीर प्रभु की सेवा में अर्पण किए थे, परंतु आज कांबीवाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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