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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासका इतिहास दिया हुआ है। तदनुसार जिनदत्त राजा को पद्मावती की कृपा से लोहे को भी सोना बनाने की शक्ति प्राप्त हुई थी। इसी तरह बकोड दन्दलि के चिक्कमागुडि, उद्रि आदि स्थानों की वसदियाँ भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
चिकमंगलूर जिले के नरसिंह राजपुर में अनेक जैनमंदिर हैं, जिनमें चन्द्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। यहीं समीप में शृंगेरी मठ है, जो किसी समय जैनों का गढ़ था। यहाँ शारदा मंदिर में एक जैन स्तम्भ पड़ा हुआ है। यहीं पास ही आचार्य कुन्दकुन्द की जन्मभूमि कुन्दकुन्दबेट्ट है, जहाँ कुन्दाद्रि पर उनके चरण बने हुए हैं। इस पर्वत पर खण्डहर, मूर्तियाँ एवं कलात्मक शिलाखण्ड बिखरे पड़े हैं।
तमिलनाडु
तमिलनाडु में जैन धर्म ने कर्नाटक से प्रवेश किया होगा। श्रीलंका में महावंश के अनुसार पाण्डुकाभय (३३७-३०७ ई.पू.) ने निर्ग्रन्थ ज्योतिय के लिए अनुराधापुर में एक मंदिर बनवाया था। इसका तात्पर्य है ई.पू. चतुर्थ शती तक जैन धर्म दक्षिण में पहुँच चुका था। देवचन्द्र ने राजवलिकषे में लिखा है कि भद्राबाहु ने विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त मौर्य २९७ ई. पू.) को निर्देश दिया था कि वे चोल पांडदेशों में और आगे जायें। रत्ननंदि के भद्रबाहुचरित (१५ वीं शती) में उनके चोल देश में जाने का उल्लेख भी है।
मद्रास के समीपवर्ती तिरुनेलबेली, रामानंद, त्रिची, पुदुक्कोट्टई, मदुराई और तिनबेलि जिलों में जैन- पुरातत्त्व बहुतायत में मिलता है। यहाँ के अधिकांश जैन- शिलालेख तृतीय शती ई.पू. के हैं । यहाँ तथा आरकोट जिले में शताधिक जैनगुफाएँ हैं, उत्तरी आरकोट में पंच पाण्डवमलई और तिरुमलई पहाड़ियाँ हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व भरा पड़ा हुआ है । विलपक्कम में एक जैन मूर्ति मिली है। यहीं नागनाथेश्वर मंदिर में ८४५ ई. का एक लेख मिला है, जिसमें लिखा है कि यहाँ पास में वल्लिमलै और तिरुमलै जैन गुफाएँ हैं । तिरुमलै में धर्मचक्र आदि को दर्शाती अच्छी पेंटिंग हैं। वेदोल के पास विदल और विदरपल्ली है, जो जैन - वसतियाँ मानी जाती हैं। पोन्नुर में आदिनाथ का बड़ा मंदिर है। यहां ज्वालामालिनी की अच्छी मूर्ति है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ी है, जिस पर हेलाचार्य की सुंदर मूर्ति है, ज्वालामालिनी के
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साथ। विद्यादेवी की भी मूर्ति यहाँ मिलती है। मद्रास से २५ मील दूर उत्तर पश्चिमवर्ती पुलाल में आदिनाथ का प्रथम शती ई.पू. का एक भव्य जैनमंदिर है।
दक्षिण आरकोट जिले में पाटलिपुर नगर है, जहाँ प्रथम शती में द्राविड संघ रहा करता था। छठी शती तक वह यहाँ बना रहा। यह तथ्य बिल्लुपुर तिरुनरंगोण्डई में प्राप्त जैनपुरातत्त्व से सिद्ध होता है। चोलवंदिपुर में अन्दिमलै के आसपास अनेक जैन स्थापत्य है। जहाँ महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं। और चट्टानों पर खुदी भी हैं। गिन्जी तालुका तो आज भी जैन पुरातत्त्व को सहेजे हुए। यहां एक जैनमठ भी है। चित्रकुट में दो जैन मंदिर भी है, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के ।
तिरुपरुट्टिकुनरम (जिनकाञ्ची) -- जिनकाञ्ची मद्रास से लगभग ६० कि.मी. दूर कान्ची का एक भाग है, जो तिरुपरुट्टिकुनरम ग्राम से संबद्ध है। बॅगेस ने इसे दक्षिण के अर्काट जिले के चित्रामूर ग्राम से समीकृत किया था, जो सही नहीं है। दक्षिण में चार विद्यास्थान माने जाते थे- जिनकान्चीपुर कोल्हापुर, पेनुकोण्डा और देहली। जिनकांचीपुर प्रारंभ से ही जैन, बौद्ध और वैष्णव संस्कृति का गढ़ रहा है। ह्यूनसांग ६४० ई. के लगभग यहाँ पहुँचा था। उसने यहाँ के जैनों की बहुसंख्या का उल्लेख किया है और अस्सी जैन मंदिरों के अस्तित्व की सूचना दी है।
यहाँ प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः दिगंबर - जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ है। दिगंबर जैनों के चार संघ हैं- मूल, द्राविड, काष्ठा और यापनीय। इनमें दक्षिण में द्राविड संघ का प्रभाव अधिक रहा है। जिनकांची के शिलालेखों में गुरु और शिष्य की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है । कुन्दकुन्दाचार्य समन्तभद्र, सिंहनन्दी पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यो का सम्बन्ध यहाँ से रहा है। अकंलक की शास्त्रीय वादविवाद परंपरा कांची से लगभग २० कि.मी. दूर तिरुप्पनकूट से संबद्ध है, जहाँ एक चित्र में ओखल है, और सामने जैनमुनि उपदेश दे रहे हैं।
अकलंक के बाद जिनकांची का संबंध आचार्य चन्द्रकीर्ति, अनन्तवीर्य, भावनन्दि, पुष्पसेन आदि आचार्यों से रहा है। पुष्पसेन का राजनीतिक प्रभाव बुक्का द्वितीय (१३८५- १४०६ ई.) के सेनापति और मंत्री इरुगप्पा के ऊपर अधिक था। उसी के परिणामस्वरूप विजयनगर के राजाओं ने उन्हें संरक्षण दिया। यहीं उनका भी समाधि स्थल है, मंदिर के भीतर मुनिवास में ।
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