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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास"" १५५५ ज्येष्ठ सुदि ९ रविवार "" १५५६ वैशाख सुदि १३ रविवार "" १५६७ वैशाख सुदि ३ बुद्धवार "" १५६९ वैशाख सुदि ९ शुक्रवार ""१५७१ चैत्र वदि २ गुरुवार.२ "" १५७१ चैत्र वदि ७ गुरुवार "" १५७३ वैशाख सुदि ६ गुरुवार "" १५७३ फाल्गुन सुदि २ रविवार माघ सुदि ५ गुरुवार इस प्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर आगमगच्छ के उक्त मुनिजनों का जो पूर्वापर संबंध स्थापित होता है, वह इस प्रकार है-- अमरसिंहसूरि (वि.सं. १४५१-१४८३) "" १५८१ हेमरत्नसूरि (वि.सं. १४८४-१५२१) अमररत्नसूरि (वि.सं. १५२४-१५४७) सोमरत्नसूरि (वि.सं. १५४८-१५८१) पूर्व प्रदर्शित पट्टावलियों की तालिका में श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई द्वारा आगमिकगच्छ और उसकी दोनों शाखाओं की अलग-अलग प्रस्तुत की गई पट्टावलियों को रखा गया है। देसाई द्वारा दी गई आगमिकगच्छ की गुर्वावली शीलगुणसूरि से प्रारंभ होकर हेमरत्नसूरि तक एवं धंधूकीया शाखा की गुर्वावली अमररत्नसरि से प्रारंभ होकर मेघरत्नसरि तक के विवरण के पश्चात समाप्त होती है। ये दोनों गुर्वावलियां मुनि जिनविजय जी द्वारा दी गई धंधूकीयाशाखा की गुर्वावली (जो शीलगुणसूरि से प्रारंभ होकर मेघरत्नसूरि तक के विवरण के पश्चात् समाप्त होती है) से अभिन्न है, अतः इन्हें अलग-अलग मानने और इनकी अप्रामाणिकता का कोई प्रश्र ही नहीं उठता है। अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा ज्ञात पूर्वोक्त चार आचार्यों (अमरसिंहसरि-हेमरत्नसरि- अमरत्नसरि - सोमरत्नसरि) के नाम इसी क्रम में धंधकीया शाखा की पट्रावली में मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रंथप्रशस्तियों द्वारा आगमिक गच्छ के मुनिजनों के जो नाम ज्ञात होते हैं, उनमें से न केवल कुछ नाम धंधकीयाशाखा की पट्टावली में मिलते हैं, बल्कि इस शाखा के साधुमेरूसूरि, कल्याणराजसूरि, क्षमाकलशसूरि, गुणमेरूसूरि, मतिसागरसूरि आदि ग्रन्थकारों के बारे में केवल उक्त ग्रन्थ प्रशस्तियों से ही ज्ञात होते __ इस प्रकार धंधूकीया शाखा की परंपरागत पट्टावली में उल्लिखितं अभयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमरत्नसूरि आदि आचार्यों के बारे में जहाँ अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा कालनिर्देश की जानकारी होती है, वहीं ग्रंथप्रशस्तियों के आधार पर इस शाखा के अन्य मुनिजनों के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के संयोज से आगमिकगच्छ की धंधूकीया शाखा की परंपरागत पट्टावली को जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है-- aroriworldwonlondiworbronironorom60-60-6606-८०60-6A6oririwordkoriadroombridAGA6A6A6A6ondi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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