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________________ -- यतीन्द्रसूरि स्मारक अन्य इतिहास --- यह मत है कि शिक्षा की यह व्यवस्था छात्रों को शिक्षा-प्राप्ति के अध्यात्मज्ञान आदि रूपों में शिक्षा की विभिन्न कोटियाँ हैं। परंतु मल उद्देश्यों से विरत कर देती है। वे विपरीत-लिंगों के सामान्य अगर स्थूल रूप में शिक्षा को वर्गीकृत किया जाए तो यह दो आकर्षण में बँध जाते हैं। वे संस्कारों को ग्रहण करने की रूपों में विभाजित होगी। प्रथम लौकिक अथवा व्यवहारिक अपेक्षा कसंस्कारों से अधिक आबद्ध हो जाते हैं। इसे पूर्णतः शिक्षा और द्वितीय आध्यात्मिक शिक्षा। शिल्प, नृत्य, गायन, सत्य नहीं माना जा सकता है। कुछ आपवादिक उदाहरणों को वादन, चिकित्सा आदि लौकिक शिक्षा है, जबकि तत्त्वज्ञान, छोड़कर बहुसंख्य प्रतिभाओं को सहशिक्षा की ही देन माना जा आत्मविद्या, ईश्वरमीमांसा आदि आध्यात्मिक शिक्षा है। मनुष्य सकता है। के लिए ये दोनों ही आवश्यक हैं। जहाँ लौकिक शिक्षा मनुष्य गुरुकुल जिन्हें प्राचीन काल में शिक्षा देने वाली प्रमुख की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है, वहीं संस्था का गौरव प्राप्त है, प्रायः बालकों को ही प्रवेश मिलता आध्यात्मिक शिक्षा मनुष्य को परम उपादेय के संबंध में बताती था। नारी-जाति में जन्म लेना यहाँ प्रवेश से वंचित रहने की है। एक सांसारिक सुख एवं यश प्रदान करती है तो दसरी एकमात्र अयोग्यता थी। लेकिन बाद में इस दिशा में मलभत पारलौकिक सुख प्राप्ति का साधन बनती है। भारतीय परंपरा में परिवर्तन हुए और कन्याओं का भी प्रवेश गुरुकुलों में होने लगा। सलों को शिक्षा का यही उत्स माना गया है। यहीं से सहशिक्षा रूपी शाला का प्रारंभ माना गया। वैदिक शिक्षा चाहे व्यवहारिक हो अथवा आध्यात्मिक दोनों के वाङ्मय में सहशिक्षा की स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए लिए व्यक्ति को स्वयं प्रयास करना पड़ता है। आध्यात्मिक आचार्य भवभूतिकृत उत्तररामचरित का दृष्टांत प्रस्तुत किया जा शिक्षा के लिए संयमित आचरण तथा कर्मबंधनों को अल्प सकता है। वाल्मीकि-आश्रम में आत्रेयी लव-कुश के साथ करने वाली विशेष प्रकार की क्रियाओं का आश्रय लिया जाता शिक्षा प्राप्त करती थी। बाद में वह अगस्त्य मुनि के आश्रम में है। दूसरी तरफ व्यवहारिक शिक्षा के फिर विविध प्रकार के शिक्षा-ग्रहण हेतु प्रवेश लेती है। दो मुनियों के आश्रमों में स्त्री कर्म करने पड़ते हैं, जो प्रायः कर्मबंधनों को दृढ़ करते हैं। इस जाति को जिस प्रकार शिक्षा दी जा रही है वह सहशिक्षा की प्रकार की शिक्षा-प्राप्ति में व्यक्ति स्वार्थ एवं कषाय से ग्रस्त हो उत्तम व्यवस्था की सूचक अवश्य मानी जा सकती है। सकता है। इन प्रवृत्तियों से मुक्त रखने के लिए व्यक्ति को जहाँ तक श्रमण-परंपरा की बात है तो यहाँ वैदिक आध्यात्मिक शिक्षा दी जाती है जिसके आधार पर समाज में परंपरा की तरह स्त्रियों को शिक्षित नहीं किया जाता था। प्रायः एक नैतिक व्यवस्था का निर्माण होता है। यह नैतिक व्यवस्था कन्याओं को गृहस्थी संबंधी शिक्षा का ज्ञान कराया जाता था, समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है और इस पर आरूढ़ जिसे वे अपने परिवार में सीख लेती थीं। यहाँ प्रायः कन्या से होकर व्यक्ति लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही प्रकार के सुखों यही अपेक्षा की जाती थी कि वह गार्हस्थ-शिक्षा में निपुणता का उपभोग करने की क्षमता प्राप्त करता है। प्राप्त कर ले। शास्त्रीय शिक्षा को उनके जीवन में विशेषकर गार्हस्थ्य, ललितकला, नृत्यकला, चित्रकला, गायन, वादन, लौकिक जीवन में कुछ भी महत्त्व नहीं दिया जाता था। लेकिन शिल्प, राजनीति, वैद्यक आदि जीवनोपयोगी शिक्षाओं को -श्रमण परंपरा में गुरुकुल जैसी व्यवस्था का प्रारंभ हो जाने के व्यावहारिक शिक्षा कहा जाता है। मनुष्य के लिए ये महत्त्वपूर्ण बाद वहाँ शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं का उल्लेख मानी गई हैं। स्त्रियों की भागीदारी शिक्षा के विविध क्षेत्रों में रही हमारे समक्ष इस परंपरा में स्वीकृत सहशिक्षा-व्यवस्था का विवरण है। गार्हस्थ शिक्षा स्त्रियाँ अपने परिवार में सीखती थीं। ऋग्वेद में प्रस्तुत करता है । यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्रियाँ (कन्याएँ) माता के साथ गृहकार्य में हाथ बँटाने के साथ-साथ पिता के साथ कृषि कार्य शिक्षा के प्रकार में भी सहभागी बनती थीं १९। व्यवहारिक शिक्षा का मुख्य शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसके विविध रूप प्रयोजन लौकिक सुख उपलब्ध कराना ही माना जाता था। भी हैं। शिल्पज्ञान, नृत्यज्ञान, चिकित्सा-विद्या, आत्मविद्या, शरीर को स्वस्थ रखना भी एक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक शिक्षा है। torrorrorooratoribeodid-Grd-ordwordwardroid-or-६१ Hidniridioronbodiabirdinarimarawardroidrorroward Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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