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________________ - यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्ध - इतिहासपरंपरा में भी स्त्रियां गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करती थीं। रूप में उपलब्ध हो जाता है, जबकि श्रमणग्रंथों में पाठभेद मिलता है। इसके पीछे प्रमुख कारण माना जा सकता है--श्रमण शिक्षण-विधि -परंपरा में लोकभाषा का प्रयोग। लोकभाषा स्थान-स्थान पर शिक्षा प्राप्त की जाती है और इसे प्राप्त करने के लिए परिवर्तनीय रही है। फलस्वरूप श्रमण-परंपरा के ग्रंथ इस परिवर्तन विशेष प्रकार की विधि अपनाई जाती है। शिक्षण-विधि में से प्रभावित हए और उनमें पर्याप्त पाठभेद मिलता है। यही लेखन और मौखिकी दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ स्वीकृत हैं। पाठभेद श्रमण-साहित्य की अपनी विशेषता है जो उसे तत्कालिक लेखन अथवा मौखिकी दोनों में ही भाषा का प्रयोग होता है। लोकभाषा का प्रतिनिधित्व करने का गौरव प्रदान करती है। प्राचीनकाल में जब लेखन-कला का अविष्कार नहीं हो पाया . उपर्युक्त चिंतन के आधार पर हम प्राचीन शिक्षण-विधि था, वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में मौखिक विधि का , के विविध प्रतिरूपों तथा अपनाई जाने वाली भाषाओं को प्रयोग किया जाता था। शिक्षण-विधि स्मृति पर आधारित थी। . निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-- भाषा के प्रयोग के रूप में जहाँ वैदिक परंपरा में प्रायः संस्कृतनिष्ठ शब्दों का उपयोग होता था वहीं श्रमण-परंपरा में लोकभाषा * मौखिक एवं स्मृति-आधारित शिक्षा व्य (प्राकृत, पालि आदि) अपनाई जाती थी। लेखन-कला का सूत्रात्मक शैली अविष्कार होने के बाद भी यही परंपरा चलती रही। परिणामस्वरूप * कथा एवं दृष्टान्त-विधि वैदिक परंपरा का अधिसंख्य साहित्य संस्कृत भाषा में निबद्ध है, जबकि श्रमण-परंपरा के ग्रंथ प्राकृत और पाली भाषा में मिलते * उपदेशमूलक शिक्षा हैं। बाद में श्रमण-ग्रंथ भी संस्कृत भाषा में रचे गए, लेकिन उसे * संस्कृत एवं श्रमण-साहित्य पर वैदिकों का प्रभाव ही माना जा सकता है। * लोकभाषा (पाली, प्राकृत आदि) प्राचीन काल में सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी। इसलिए उसे इस रूप में प्रस्तुत किया सहशिक्षा . जाता था आसानी से याद किया जा सके। बात को अति शिक्षा शालाओं में ग्रहण की जाती है और इसे बालक एवं संक्षिप्त और सूत्ररूप में प्रस्तुत किया जाता था। ताकि उसे उसी बालिकाएँ दोनों प्राप्त करते हैं। अतएव हमारे समक्ष इसके लिए रूप में स्मृति में रखा जा सके। यही कारण है कि प्रारंभिक एक व्यवस्था बनाने की समस्या आती है और इसके तीन संभावित साहित्य, मंत्र, सूत्र आदि संक्षिप्त रूप में मिलते हैं। विषयों को प्रारूप हो सकते हैं--१. पुरुष-शिक्षा-शाला, २. स्त्री-शिक्षाकथाओं के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता था, जिसके कारण शाला और ३. मित्र-शिक्षा-शाला। शिक्षा-शालाओं की ये तीनों मूल तत्त्वों को कथा-प्रसंगों के साथ याद रखना अधिक सगम ही व्यवस्थाएँ आज मान्य हैं। वैदिक एवं श्रमण-परंपरा में शिक्षा होता था। विषय-वस्तुओं को लौकिक दृष्टांतों अथवा जीवन के शालाओं की क्या व्यवस्था थी? क्या आज की ही भाँति उस प्रसंगों के साथ तुलना करके प्रतिपादित किया जाता था। अतः काल में भी यही तीनों व्यवस्थाएँ मान्य थीं अथवा कुछ और बाद के ग्रन्थ विवरणात्मक शैली में रचे गए जिनमें सत्रों की व्यवस्था स्वीकृत थी, आदि प्रश्रों पर विचार करना है। व्याख्या, कथानकों और दृष्टांतों के प्रयोग आदि होते थे। सहशिक्षा से हमारा तात्पर्य शिक्षा-प्राप्ति की उस व्यवस्था प्राय: प्राचीन काल में दोनों ही परंपराओं में उपदेशमलक से है, जहाँ स्त्री-पुरुष एक साथ शिक्षा ग्रहण करते हों। सहशिक्षा शिक्षण-पद्धति स्वीकार की जाती थी। परंत दोनों की विधियों में की यह व्यवस्था प्राचीनकाल में भी मान्य थी और आज भी अंतर था। वैदिकों ने शब्दों को यथावत रूप में स्वीकार किया प्रचलति है। कुछ चिंतकों ने इसे श्रेष्ठ माना है, जबकि कतिपय जबकि श्रमण-परंपरा में शब्दों की जगह अर्थ को प्रधान माना विद्वानों की दृष्टि में यह उचित नहीं है। उनके मतानुसार सहशिक्षा गया। यही कारण है कि आज भी वैदिक साहित्य अपने मूल बालक-बालिकाओं के संस्कार को विकृत कर देती है। उनका anoramidnirankaridwordsranirankarirandirdmiriranird-[ ६० drinidiridwidwordwarawiniantanoraridwardrdrawer Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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