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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासअपरिचित रहे हों या उसके रचना-कौशल का उनमें ज्ञान न रहा विचार है कि हमारे देश में इतिहास वैदिक काल से था, किन्तु हो यह बात संभव नहीं लगती। उसका स्वरूप स्वदेशी है, न कि पाश्चात्य। इतिहास संबंधी ज्ञान के इतने महत्त्वपूर्ण अंग की स्पष्ट धारणा इस देश में भारतीय एवं पाश्चात्य अवधारणाओं में अंतर के कारण ही यह " न रही हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती। भ्रामक विचार फैला। यह तो ज्ञात है कि हमारे देश में अश्वमेध टिलहार्ड द शार्डिन और लोएस डिकिन्सन जैसे कछ पाश्चात्य यज्ञ वैदिककाल से होते रहे हैं। यज्ञ की तैयारी के समय संबंधित लेखकों ने यह मत प्रचारित किया था और हीरानंद शास्त्री जैसे चक्रवर्ती सम्राट के प्रताप, शौर्य और वीरतापूर्ण कार्यों का विद्वान ने इसका समर्थन किया कि प्राचीन भारत में स्पष्ट बखान 'नाराशंसी' के रूप में छंदों में गाए जाने की प्रथा प्रचलित इतिहास-ग्रन्थ नहीं लिखे गए। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी थी। राजाओं की ही नहीं ऋषियों की प्रशंसा के भी प्रमाण हैं। प्रकारान्तर से यही माना है। आधुनिक इतिहासकार काल, व्यक्ति कुछ गाथाओं (दशराज्ञ) में ब्राह्मण पुरोहित वशिष्ठ की प्रशंसा और स्थान एवं घटना को इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। की गई है जिसने सुदास को दश राजाओं पर विजय प्राप्त करने इसी आधार पर वे हमारे प्राचीन इतिहास ग्रन्थों-महाभारत आदि का मार्ग दिखाया। ऋग्वेद में ही इन्द्र की प्रशस्ति मिलती है। यही को आधुनिक अर्थ में इतिहास-ग्रन्थ नहीं मानते, क्योंकि प्रशस्ति की परिपाटी आगे 'गाथा' और 'नाराशंसी' में मिलती है, महाभारतकार ने २४ हजार श्लोकों में से किसी भी श्लोक में जिसका अर्थ नर या श्रेष्ठ आदमी की प्रशंसा अर्थात् महापुरुषों संभवत: उसकी रचना का समय और स्थान का विवरण नहीं की प्रशस्ति है।यह एक रचना की विधा थी। इसमें केवल यज्ञकर्ता दिया। लेकिन क्या काल की उपेक्षा के कारण शेष तीनों वर्णन राजा की ही नहीं वरन देवों, ऋषियों और प्राचीन राजाओं की ऐतिहासिक न होकर पौराणिक हो गए। उनका यह कथन कि भी प्रशंसा के गीत गाए जाते थे। इस प्रकार की नाराशंसी और आधनिक अर्थ में इतिहास-लेखन की अवधारणा पाश्चात्य गाथाएँ जनमेजय-परीक्षित. मरुतऐक्ष्वाक. कैव्य-पांचाल और जगत् में विकसित हुई सर्वथा मान्य नहीं है। भारतीय काल की भरत आदि प्रतापी सम्राटों के संबंध में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलती सनातनता में विश्वास करते हैं न कि परातनता में। आधुनिक है। बाद में यह कार्य सूतों और मागधों ने सँभाल लिया। यजुर्वेद इतिहास भूत या प्राचीन काल की घटनाओं का विवरण देने को और वायुपुराण में इनका उल्लेख मिलता है। ये लोग राजाओं, ही महत्त्वपूर्ण मानता है। हमारे देश में जड़, मृत या भूत की राजवंशों, उनके कार्यों तथा उनकी शासन-व्यवस्था का लेखाउपासना प्रशस्त नहीं मानी गई। मिस्त्र में भूत की उपासना प्रबल जोखा रखते थे। मागधों सूतों का मुख्य कार्य देवों, ऋषियों और रूप से प्रचलित थी। इसीलिए ममी को पिरामिडों में सुरक्षित महापुरुषों तथा प्रतापी राजाओं की वंशावली तैयार करना था। रखा गया। ईसाई और इस्लाम में मृतकों को गाढ़कर उनके ऊपर सत को पौराणिक भी कहते थे। वैसे तो आगे चलकर सूतकब्र बनवाना मिस्री भूत-पूजा का ही अनुकरण है। भारतीय संस्कृति में मृतकों को अग्नि में जलाने के बाद जो शेष रहता है, मागध शब्द भी पुराण इतिहास की तरह समानार्थी हो गए थे, पर उसे जल में प्रवाहित किया जाता है और शेष केवल सनातन मागध वंशावली रखते थे और सूत पुराण तैयार करते थे। पार्जिटर बचता है। संभवतः इसीलिए महाभारत और पुराणों में तिथिक्रम ___ का कथन है कि उन्हीं सूतों ने राजवंशों की विरुदावलियाँ, प्रतापी नहीं मिलता है। प्रायः पुराणों में जो राजवंशावलियाँ है उनसे राजा राजाओं के शौर्यप्रताप की कहानियाँ एकत्र की, जो बाद में इतिहास के तिथिक्रम-निर्धारण में कम ही सहायता मिलती है। पुराणों में सम्मिलित की गई और इतिहास का महत्त्वपूर्ण स्त्रोत बनीं। सूत, वैशंपायन, लोमहर्षण आदि सूत ही थे। इनका उल्लेख पाश्चात्य विचारकों का मत है कि सिकन्दर के आक्रमण प्राचीन भारतीय साहित्य में बराबर मिलता है। भारत के प्राचीनतम और चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की निश्चित तिथि ई.पू. ३२५ राजा 'पृथु' का उल्लेख सूत्रों ने किया है। इसी पृथु के नाम पर को ही आधार मानकर पुराणों की संख्या को समय-सूचक 'पृथ्वी' का नामकरण हुआ। पृथु का उल्लेख मेगस्थनीज और बनाया गया है। अत: यह आधार भी दृढ़ नहीं है। सच्चिदानन्दमूर्ति, डायोडोरस जैसे विदेशी लेखक भी करते हैं। सूत एक प्रकार वी.वी. गोखले, के.पी. जायसवाल और विश्वंभरशरण पाठक के चारण थे जो विरुदावली गाते थे, वंशावली बखानते थे। बाद प्रमाणपूर्वक इस मत का खण्डन करते हैं। इन विद्वानों का में ये शासकों की वंशावली बनाने और उसके रखरखाव के widiororandioudiodorovomdwardousootocornironid ५२ 16amororanimoondutomoromandrovindramdondomodoor Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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