SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार (२१) (२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण अयोग्य कहना। सत्य समझ लेना। प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के विपरीत मिथ्यात्व-वस्तुतत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना। योग्य (सप्रतिकर्म) कहना। (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति गीता में अज्ञान : उपेक्षा रखना। गीता के मोह, अज्ञान या तामसिक ज्ञान भी मिथ्यात्व कहे जा (२३) अज्ञान मिथ्यात्व-ज्ञान अथवा विवेक का अभाव। सकते हैं। इस आधार पर विचार करने से गीता में मिथ्यात्व का निम्न (२४) अविनय मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान स्वरूप उपलब्ध होता है प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन १. परमात्मा लोक का सर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों नहीं करना। पूज्यबुद्धि और विनीतता का अभाव अविनय- के फल का संयोग करने वाला है अथवा वह किसी के पाप-पुण्य मिथ्यात्व है। को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४, १५)। (२५) आसातना मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना। २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८), धन परिवार अविनय और आसातना को मिथ्यात्व इसलिए कहा गया है एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५), विपरीत कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नहीं ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर नाशवान् शरीर में आत्म-बुद्धि रखना करता है और फलस्वरूप उनसे मिलने वाले यथार्थता के बोध से व उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहना, जो कि तत्त्व-अर्थ से वंचित रहता है। रहित और तुच्छ है, तामसिक ज्ञान है (१८-१२)। इसी प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और बौद्ध-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। महात्मा बुद्ध ने सद्धर्म का विनाश करने वाली कुछ धारणाओं का विवेचन अंगुत्तरनिकाय१० में किया है जो कि जैन-विचारणा के पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय मिथ्यात्व की धारणा के बहुत निकट है। तुलना की दृष्टि से हम उनकी मिथ्यात्व यथार्थता के बोध का बाधक तत्त्व है। वह एक ऐसा संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसके आधार पर यह जाना जा सके रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को आवृत कर व्यक्ति के कि दोनों विचार-परम्पराओं का इस सम्बन्ध में कितना अधिक साम्य है। समक्ष उसका अयथार्थ किंवा प्रान्त स्वरूप ही प्रकट करता है। भारत ही अधर्म को अधर्म बताना। नहीं, पाश्चात्य देशों के विचारकों ने भी यथार्थता या सत्य के जिज्ञासु को धर्म को धर्म बताना। मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है। पाश्चात्य दर्शन के भिक्षु अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना। नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के भिक्षु नियम को अनियम बताना। लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश तथागत (बुद्ध) द्वारा अभाषित को तथागत भाषित कहना। करते हैं, चार मिथ्या धारणाएँ निम्न हैंतथागत द्वारा भाषित को अभाषित कहना। (१) जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus)-सामाजिक संस्कारों तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित कहना। से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ। तथागत द्वारा आचरित को अनाचरित कहना। बाजारू मिथ्या विश्वास (Idola Fori)- असंगत अर्थ आदि। तथागत द्वारा नहीं बनाए हुए (अप्रज्ञप्त) नियम को प्रज्ञप्त कहना। व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (Idola Speces)- व्यक्ति के द्वारा तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाए हुए नियम) को अप्रज्ञप्त बताना। बनाई गयी मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह) अनपराध को अपराध कहना। रंगमंच की भ्रान्ति (Idola Theatri)- मिथ्या सिद्धान्त या अपराध को अनपराध कहना। मान्यताएँ। लघु अपराध को गुरु अपराध कहना। वे कहते हैं- 'इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त गुरु अपराध को लघु अपराध कहना। करके ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण करना चाहिए। १८ गम्भीर अपराध को अगम्भीर कहना। अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना। जैन-दर्शन में अविद्या का स्वरूप निर्विशेष अपराध को सविशेष कहना। जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द मोह भी है। मोह १८. सविशेष अपराध को निर्विशेष कहना। आत्मा को सत् के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर उसे गलत १९. प्रायश्चित्त-योग्य (सप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित के मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है। (४) GmWom - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy