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________________ 'जैनयोग में अनुप्रेक्षा' समणी नियोजिका मंगलप्रज्ञा.... यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द अर्थ के बोधक साहित्य में अनुप्रेक्षा/भावना के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण एवं विशद होते हैं। अर्थ व्यंग्य एवं शब्द व्यंजक होता है। साधना के क्षेत्र में विवरण प्राप्त है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्यमाध्यम से अर्थ तक पहुँचता है तथा अंततः अर्थ के साथ भावना भी कहते हैं। इनके अनुचिंतन से व्यक्ति भोगों से निर्विण्ण उसका तादात्म्य स्थापित होता है। अर्थ से तादात्म्य स्थापित होकर साम्य-भाव में स्थित हो सकता है। होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें ध्यान की परिसम्पन्नता के पश्चात् मन की मूर्छा को एकत्व हो जाता है। उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता तोडने वाले विषयों का अनचिंतन करना अनप्रेक्षा है। ४ अन एवं को प्राप्त होता है। इस एकत्व की अवस्था में चित्रवृत्तियों का प्र उपसर्ग सहित ईक्ष् धातु के योग से अनुप्रेक्षा शब्द निष्पन्न हुआ - सर्वथा निरोध हो जाता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार है. जिसका शाब्दिक अर्थ है - पनः पनः चिन्तन करना। विचार यह निरोध ही योग है। पूर्ण समाधि की अवस्था है। करना। प्राकृत में अनुप्रेक्षा के लिए अणुप्पेहा, अणुपेहा, अणुवेक्खा, जैन दर्शन में योग शब्द का अर्थ है - प्रवृत्ति। मन, वचन अणुवेहा, अणुप्पेक्खा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है। जैनतत्त्वमीमांसा सबका संस्कृत रूपान्तरण अनुप्रेक्षा है। आचार्य पूज्यपाद ने में शुभयोग, अशुभयोग आदि शब्द प्रचलित हैं किन्तु प्रस्तुत शरीर आदि के स्वभाव के अनुचिंतन को अनुप्रेक्षा कहा है। प्रसंग में जैनयोग शब्द का प्रयोग इस प्रवृत्त्यात्मक योग के लिए स्वामी कुमार के अभिमतानुसार सुतत्त्व का अनुचिंतन अनुप्रेक्षा नहीं हुआ है। यहाँ योग शब्द जैनसाधनापद्धति के अर्थ में प्रयुक्त है। अनित्य, अशरण आदि स्वरूप का बार-बार चिन्तनहै। आगम-उत्तरवर्ती जैन-साहित्य में योग का तत्त्वमीमांसीय अर्थ स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा तत्त्व चिंतनात्मक है। ध्यान प्रवृत्यात्मकता तो स्वीकृत रहा ही साथ में साधना के अर्थ में भी में जो अनुभव किया है, उसके परिणामों पर विचार करना अनुप्रेक्षा इसका प्रयोग होने लगा। जैन आचार्यों ने साधनापरक ग्रंथों के नाम है। योगशास्त्र आदि रखे एवं योग का साधनात्मक नाम सर्वमान्य हो अध्यात्म के क्षेत्र में अनपेक्षा का महत्वपर्ण स्थान है। गया। अनुप्रेक्षा के विविध प्रयोगों से व्यक्ति की बहिर्मुखी चेतना आत्मा का सिद्धान्त स्थिर हुआ तब आत्म-विकास के अंतर्मुखी बन जाती है। चेतना की अंतर्मुखता ही अध्यात्म है। साधनों का अन्वेषण किया गया। आत्मविकास के उन साधनों जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। अनुप्रेक्षा के महत्त्व को प्रकट करते को एक शब्द में मोक्षमार्ग या योग कहा गया है। वस्तुत: जैन हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि - जितने भी भूतकाल में साधनापद्धति का नाम मोक्षमार्ग है। आचार्य हरिभद्र ने कहा - श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं एवं भविष्य में होंगे, वह भावना का ही "मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो"३ वह सारा महत्त्व है। आचार्य पद्मनन्दि बारह अनुप्रेक्षा के अनुचिंतन की धार्मिक व्यापार योग है, जो व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है। योग प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि बारह भावना महान् पुरुषों के द्वारा या मोक्षमार्ग केवल पारलौकिक ही नहीं है किन्तु वर्तमान जीवन में सदा ही अनुप्रेक्षणीय है। उनकी अनुचिंतना कर्मक्षय का कारण भी जितनी शांति, जितना चैतन्य स्फुरित होता है, वह सब मोक्ष है। है। शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि भावना के अभ्यास से कषायाग्नि शांति एवं चैतन्य की स्फरणा के लिए जैन-साहित्य में शांत, राग नष्ट एवं अंधकार विलीन हो जाता है तथा पुरुष के शात, राग नष्ट एव अधकार विल अनेक उपायों का निर्देश है। उन उपायों में एक महत्त्वपर्ण उपाय हृदय में ज्ञान रूपी दीपक उद्भासित हो जाता है। तत्त्वार्थसत्र. है - अनप्रेक्षा। जैन-आगम. तत्त्वमीमांसीय एवं साधनापरक कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रंथों में अनुप्रेक्षा को संवर धर्म का विशेष anddodiodododotdodcordirdwordworidwara-[३२daridwaridwardroidswiriraroraniraordinarorand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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