SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 659
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - की परम्परा में स्त्री को परिग्रह मानकर परिग्रह के पजा एवं सत्कार के लिए नहीं। जैनधर्म में यद्यपि तीर्थंकर को त्याग में ही स्त्री का त्याग भी समाहित मान लिया जाता था, लोकहित करने वाला बताया गया है, फिर भी उनका उद्देश्य किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों ने उसकी स्वजनों का संरक्षण एवं दुष्टों का विनाश नहीं है, क्योंकि यदि वे गलत ढंग से व्याख्या करना शुरू किया और कहा कि परिग्रह दुष्टों का विनाश करते हैं, तो उनके द्वारा प्रदर्शित अहिंसा का के त्याग में स्त्री का त्याग तो हो जाता है, किन्तु बिना विवाह के चरमादर्श खण्डित होता है, साथ ही सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के बंधन में बंधे स्त्री का भोग तो किया जा सकता है और उसमें विनाश के प्रयत्न निवृत्तिमार्गी साधना-पद्धति के अनुकूल नहीं कोई दोष नहीं है। अतः महावीर ने स्त्री के भोग के निषेध के है। लोकपरित्राण अथवा लोककल्याण तीर्थंकरों के जीवन का लिए ब्रह्मचर्य की स्वतंत्र व्यवस्था की। महावीर ने पार्श्व की लक्ष्य अवश्य रहा है, किन्तु मात्र सन्मार्ग के उपदेश के द्वारा, न परम्पराओं में अनेक सुधार किए, जैसे उन्होंने मुनि की नग्नता कि भक्तों के मंगल हेतु दुर्जनों का विनाश करके। तीर्थंकर धर्म पर बल दिया। दुराचरण के परिशोधन के लिए प्रातःकालीन और -संस्थापक होते हुए भी सामाजिक कल्याण के सक्रिय भागीदार सायंकालीन प्रतिक्रमण की व्यवस्था की। उन्होंने कहा - चाहे नहीं हैं। वे सामाजिक घटनाओं के मात्र मूकदर्शक ही हैं। अपराध हुआ हो या न हुआ हो, प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल यद्यपि आचारांग में तीर्थंकरों ने 'आणाये मामगं धम्म' अपने दोषों की समीक्षा तो करनी चाहिए। इसी प्रकार औददेशिक कहकर अपनी आज्ञा के पालन में ही धर्म की उद्घोषणा की है, आहार का निषेध, चातुर्मासिक व्यवस्था और नवकल्प विहार फिर भी उनका धर्मशासन बलात् किसी पर थोपा नहीं जाता है, आदि ऐसे प्रश्न थे, जिन्हें महावीर की परम्परा में आवश्यक रूप आज्ञापालन ऐच्छिक है। जैन-धर्म में तीर्थंकर को सभी पापों का से स्वीकार किया गया था। इस प्रकार महावीर ने पार्श्वनाथ की नाश करने वाला भी कहा गया है। एक गुजराती जैन कवि ने ही परम्परा को संशोधित किया था। महावीर के उपदेशों की कहा है२३६ -"चाहे पाप का पुञ्च मेरु के आकार के समान ही विशिष्टता यही है कि उन्होंने ज्ञानवाद की अपेक्षा भी आचार क्यों न हो, प्रभु के नाम रूपी अग्नि से यह सहज ही विनष्ट हो शुद्धि पर अधिक बल दिया है और किसी नये धर्म या सम्प्रदाय जाता है।" इस प्रकार जैन-धर्म में तीर्थंकर के नाम-स्मरण एवं की स्थापना के स्थान पर पूर्व प्रचलित निर्ग्रन्थ-परम्परा को ही उपासना से कोटि जन्मों के पापों का प्रक्षालन सम्भव माना गया देश और काल के अनुसार संशोधनों के साथ स्वीकार कर है, फिर भी जैन तीर्थंकर अपनी ओर से ऐसा कोई आश्वासन के लिया। महावीर के उपदेशों में रत्नत्रय की साधना में पंचमहाव्रतों नहीं देता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा। का पालन, प्रतिक्रमण, परिग्रह का सर्वथा त्याग, कठोर तप - वह तो स्पष्ट रूप से कहता है कि कृतकों के फलभोग के साधना आदि कुछ ऐसी बातें हैं, जो निर्ग्रन्थ-परम्परा में महावीर बिना मुक्ति नहीं होती है।२३७ प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुभाशुभ के योगदान को सूचित करती हैं। इस प्रकार महावीर पार्श्व की कर्मों का लेखा-जोखा स्वयं ही पूरा करना है। चाहे तीर्थंकर के निर्ग्रन्थ परम्परा में देश और काल के अनुसार नवीन संशोधन नाम रूपी अग्नि से पापों का प्रक्षालन होता हो, किन्तु तीर्थंकर में करने पूर्व प्रचलित निर्ग्रन्थ-परम्परा के संशोधक या सुधारक हैं। ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह अपने भक्त को पीडाओं से ११. तीर्थंकर और लोककल्याण उबार सके, उसके दुःख कम कर सके, उसके पापों से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार तीर्थंकर अपने भक्त का त्राता नहीं है। जैन-धर्म में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकारी, वह स्वयं निष्क्रिय होकर भक्त को प्रेरणा देता है कि तू सक्रिय लोकप्रदीप तथा अभयदाता आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। हो, तेरा उत्थान एवं पतन मेरे हाथ में नहीं, तेरे ही हाथ में निहित जैनाचार्यों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि समय- है।२३८ इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि तीर्थंकर लोककल्याण या समय पर धर्मचक्र का प्रवर्तन करने हेतु तीर्थंकरों का जन्म होता लोकहित की कामना को लेकर मात्र धर्म-प्रवचन करता है, ताकि रहता है। सूत्रकृतांग-टीका में कहा गया है कि तीर्थंकरों का व्यक्ति उन धर्माचरणों पर चलकर अपना आध्यात्मिक विकास प्रचलन एवं धर्मप्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, कर सके और स्वयं भी उसी तीर्थंकर पद का अधिकारी बन सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy