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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ५. आकाश में रत्नमय धर्मध्वज। ९. स्फटिकमणि के बने हुए पादपीठ सहित उनका स्वच्छ ६. सुवर्ण कमलों पर चलना। सिंहासन होता है। ७. समवसरण में रत्न, सुवर्ण और चाँदी के तीन परकोटे। १०. उनके आगे हमेशा अनेक लघुपताकाओं से वेष्टित एक ८. चतुर्मुख उपदेश। इंद्रध्वज पताका चलती है। ९. चैत्य वृक्ष। ११. जहाँ-जहाँ अरिहन्त भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्षदेव सछत्र, सघट, सपताक तथा पत्र-पुष्पों १०. कण्टकों का अधोमुख होना। से व्याप्त अशोक वृक्ष का निर्माण करते हैं। ११. वृक्षों का झुकना। १२. उनके मस्तक के पीछे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने १२. दुन्दुभि बजना। वाला तेज-प्रभामंडल होता है। १३. अनुकूल वायु। साथ ही जहाँ भगवान का गमन होता है, वहाँ निम्नलिखित १४. पक्षियों का प्रदक्षिणा देना। परिवर्तन हो जाते हैं - १५. गन्धोदक की वृष्टि। १३. भूमिभाग समान तथा सुन्दर हो जाता है। १६. पाँच वर्णो के पुष्पों की वृष्टि। १४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। १७. नख और केशों का नहीं बढ़ना। १५. ऋतुएँ सुखस्पर्श वाली हो जाती हैं। १८. कम से कम एक कोटि देवों का पास में रहना। १६. समवर्तक वायु के द्वारा एक योजन तक के क्षेत्र की शुद्धि १९. ऋतुओं का अनुकूल होना। हो जाती है। दिगम्बर परम्परानुसार १० सहज अतिशय, १० कर्मक्षयज १७. मेघ द्वारा उपचित बिन्दुपात से रज और रेणु का नाश हो अतिशय और १४ देवकृत अतिशय माने गए हैं। जाता है। समवायांगसत्र में बद्ध (तीर्थंकर) के निम्न चौबीस अतिशय १८. पंचवर्णवाला सुन्दर पुष्प-समुदाय प्रकट हो जाता है। या विशिष्ट गुण माने गए हैं३१ । समवायांग के टीकाकार अभयदेव १९. (अ) भगवान् के आसपास का परिवेश अनेक प्रकार की सूरि ने बुद्ध शब्द का अर्थ तीर्थंकर किया है।३२ समवायांग की धूप के धुंए से सुगन्धित हो जाता है। इस सूची में पूर्वोक्त विविध वर्गीकरणों के उप-प्रकार समाहित हैं। (ब) अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का अभाव १. तीर्थंकरों के सिर के बाल, दाढ़ी तथा मूंछ एवं रोम और हो जाता है। नख बढते नहीं है. हमेशा एक ही स्थिति में रहते हैं। २०. (अ) भगवान के दोनों ओर आभूषणों से सुसज्जित यक्ष २. उनका शरीर हमेशा रोग तथा मल से रहित होता है। चमर डुलाते हैं। ३. उनका माँस तथा खून गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण का (ब) मनोज्ञ शब्दादि का प्रादुर्भाव हो जाता है। होता है। २१. उपदेश करने के लिए अरिहन्त भगवान् के मुख से एक ४. उनका श्वासोच्छ्वास कमल के समान सुगन्धित होता है। योजन का उल्लंघन करने वाला हृदयंगम स्वर निकलता है। ५. उनका आहार और नीहार (मूत्रपुरीषोत्सर्ग) दृष्टिगोचर नहीं २२. भगवान् का भाषण अर्द्धमागधी भाषा में होता है। होता। २३. भगवान् द्वारा प्रयुक्त भाषा, आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद ६. वे धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं। आदि समस्त प्राणिवर्ग की भाषा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। ७. उनके ऊपर तीन छत्र लटकते रहते हैं। ८. उनके दोनों ओर चमर लटकते हैं। २४. बद्ध-वैर वाले देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, गंधर्व आदि aroranayamirariramidnirandirindranatomidniromiraramir २६iwarioudnirodroidrodroportirorandeindianGrandmotion Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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