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________________ ५. निर्वाणकल्याणक तीर्थंकर के परिनिर्वाण प्राप्त होने पर भी देवों द्वारा उनका दाहसंस्कार कर परिनिर्वाणोत्सव मनाया जाता है। २८ (ब) अतिशय इस प्रकार जैनपरम्परा में तीर्थंकरों के उपर्युक्त पंचकल्याणक माने गए हैं। उल्लेख किया है। सामान्यतया जैनाचार्यों ने तीर्थंकरों के चार अतिशयों का १. ज्ञानातिशय २. वचनातिशय ३. अपायापगमातिशय ४. पूजातिशय _३० - १. ज्ञानातिशय केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता की उपलब्धि ही तीर्थंकर का ज्ञानातिशय माना गया है। दूसरे शब्दों में तीर्थंकर सर्वज्ञ होता है, वह सभी द्रव्यों की भूतकालिक, वर्तमानकालिक तथा भावी पर्यायों का ज्ञाता होता है। दूसरे शब्दों में वह त्रिकालज्ञ होता है। तीर्थंकर का अनन्तज्ञान से युक्त होना ही ज्ञानातिशय है। यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - २. वचनातिशय - अबाधित और अखण्डनीय सिद्धान्त का प्रतिपादन तीर्थंकर का वचनातिशय कहा गया है। प्रकारान्तर से वचनातिशय के ३५ उपविभाग किए गए हैं। क. ख. ग. ३. अपायापगमातिशय समस्त मलों एवं दोषों से रहित होना अपायापगमातिशय है। तीर्थंकर को रागद्वेषादि १८ दोषों से रहित माना गया है। ४. पूजातिशय- देव और मनुष्यों द्वारा पूजित होना तीर्थंकर का पूजातिशय है। जैनपरम्परा के अनुसार तीर्थंकर को देवों एवं इन्द्रों द्वारा पूजनीय माना गया है। টটি ট Jain Education International - तीर्थंकरों के अतिशयों को जैनाचार्यों ने निम्न तीन भागों में भी विभाजित किया है सहज अतिशय कर्मक्षयज अतिशय देवकृत अतिशय २ उक्त तीन अतिशयों के चौंतीस उत्तरभेद किए गए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सहज अतिशय के चार, कर्मक्षयज अतिशय के ग्यारह और देवकृत अतिशय के उन्नीस भेद स्वीकार किए गए हैं। (क) सहज अतिशय १. सुन्दर रूप, सुगन्धित, नीरोग, पसीनारहित एवं मलरहित शरीर । २. कमल के समान सुगन्धित श्वासोछ्वास । ३. गौ के दुग्ध के समान स्वच्छ, दुर्गन्धरहित माँस और रुधिर । ४. चर्मचक्षुओं से आहार और नीहार का न दिखना । (ख) कर्मक्षयज अतिशय १. योजन मात्र समवसरण में क्रोडाक्रोडी मनुष्य, देव और तिर्यञ्चों का समा जाना। २. एक योजन तक फैलने वाली भगवान की अर्धमागधी वाणी को मनुष्य, तिर्यञ्च और देवताओं द्वारा अपनी-अपनी भाषा में समझ लेना । ३. ४. सूर्यप्रभा से भी तेज सिर के पीछे प्रभामंडल का होना । सौ योजन तक रोग का न रहना । वैर का न रहना। ५. ६. ईति अर्थात् धान्य आदि को नाश करने वाले चूहों आदि का अभाव। ७. ८. ९. महामारी आदि का न होना । अतिवृष्टि न होना । अनावृष्टि न होना । १०. दुर्भिक्ष न पड़ना। ११. स्वचक्र और परचक्र का भय न होना । (ग) देवकृत अतिशय १. आकाश में धर्मचक्र का होना । २. आकाश में चमरों का होना । ३. आकाश में पादपीठ सहित उज्ज्वल सिंहासन । ४. आकाश में तीन छत्र । For Private Personal Use Only Bimbimbin www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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