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________________ जैन-आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न निम्रन्थ-परम्परा में सचेलकत्व और अचेलकत्व का प्रश्न अति- किया है। शौरसनी आगम-साहित्य में कसायपाहुड ही एकमात्र ऐसा प्राचीन काल से ही विवाद का विषय रहा है। वर्तमान में जो श्वेताम्बर ग्रन्थ है, जो अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर का है, किन्तु दुर्भाग्य से इसमें । और दिगम्बर सम्प्रदाय हैं, उनके बीच भी विवाद का प्रमुख बिन्दु यही वस्त्र-पात्र सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है। शेष शौरसेनी है। पहले भी इसी विवाद के कारण उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ विभाजित आगम-ग्रन्थों में भगवती-आराधना, मूलाचार और षखण्डागम मूलतः हुआ था और यापनीय सम्प्रदाय अस्तित्व में आया था। दूसरे शब्दों यापनीय-परम्परा के हैं। साथ ही गुणस्थान-सिद्धान्त आदि की परवर्ती में इसी विवाद के कारण जैनों में विभिन्न सम्प्रदाय अर्थात् श्वेताम्बर, अवधारणाओं की उपस्थिति के कारण ये ग्रन्थ भी विक्रम की छठी दिगम्बर और यापनीय निर्मित हुए हैं। यह समस्या मूलत: मुनि-आचार शती के पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं, फिर भी प्रस्तुत चर्चा में से ही सम्बन्धित है, क्योकि गृहस्थ उपासक, उपासिकाएँ और साध्वियाँ इनका उपयोग इसलिये आवश्यक है कि अचेल पक्ष को प्रस्तुत करने । तो तीनों ही सम्प्रदायों में सचेल (सवस्त्र) ही मानी गई हैं। के लिये इनके अतिरिक्त अन्य कोई प्राचीन स्रोत-सामग्री हमें उपलब्ध मुनियों के सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा की मान्यता यह है कि नहीं है। जहाँ तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें सुत्तपाहुड मात्र अचेल (नग्र) ही मुनि पद का अधिकारी है। जिसके पास वस्त्र एवं लिंगपाहुड को छोड़कर यह चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। है, चाहे वह लँगोटी मात्र ही क्यों न हो, वह मुनि नहीं हो सकता ये ग्रन्थ भी छठी शती के पूर्व के नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि अचेल है। इसके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि मुनि अचेल (नग्न) परम्परा के पास सचेलकत्व और अचेलकत्व की इस परिचर्चा के लिये और सचेल (सवस्त्र) दोनों हो सकते हैं। साथ ही वे यह भी मानते छठी शती के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। यद्यपि हैं कि वर्तमान काल की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिसमें मुनि का अचेल दिगम्बर-परम्परा इन ग्रन्थों का काल प्रथम-द्वितीय शताब्दी नहीं (नग्र) रहना उचित नहीं है। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न यापनीयों मानती है। की मान्यता यह है कि अचेलता ही श्रेष्ठ मार्ग है, किन्तु आपवादिक जहाँ तक अन्य परम्पराओं के प्राचीन स्रोतों का प्रश्न है, वेदों स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकता है। इस प्रकार जहाँ दिगम्बर परम्परा में नग्न श्रमणों या व्रात्यों के उल्लेख तो मिलते है, किन्तु वे स्पष्टत: एकान्त रूप से अचेलकत्व को ही मुनि-मार्ग या मोक्ष-मार्ग मानती निर्ग्रन्थ (जैन) परम्परा के हैं, यह कहना कठिन है। यद्यपि अनेक हिन्दू है, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा वर्तमान में जिनकल्प (अचेल-मार्ग) का उच्छेद पुराणों में नग्न जैन श्रमणों के उल्लेख हैं, किन्तु अधिकांश हिन्दू-पुराण दिखाकर सचेलता पर ही बल देती है। यापनीय-परम्परा का दृष्टिकोण तो विक्रम की पाँचवीं-छठी शती या उसके भी बाद के हैं, अत: उनमें इन दोनों अतिवादियों के मध्य समन्वय करता है। वह मानती है कि उपलब्ध साक्ष्य अधिक महत्त्व के नहीं हैं। दूसरे उनमें सवस्त्र और सामान्यतया तो मुनि को अचेल या ना ही रहना चाहिये, क्योंकि निर्वस्त्र दोनों प्रकार के जैन मुनियों के उल्लेख मिल जाते हैं, अत: वस्त्र भी परिग्रह ही है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में संयमोपकरण उन्हें इस परिचर्चा का आधार नहीं बनाया जा सकता है। के रूप में वस्त्र रखा जा सकता है। उसकी दृष्टि में अचेलकत्व (नग्नत्व) इस दृष्टि से पालित्रिपिटक के उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और उत्सर्ग-मार्ग है और सचेलकत्व अपवाद-मार्ग है। किसी सीमा तक सत्य के निकट भी प्रतीत होते हैं। इस परिचर्चा प्रस्तुत परिचर्चा में सर्वप्रथम हम इस विवाद को इसके ऐतिहासिक के हेतु जो आधारभूत प्रामाणिक सामग्री हमें उपलब्ध होती है, वह परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करेंगे कि यह विवाद क्यों, कैसे और है मथुरा से उपलब्ध प्राचीन जैन मूर्तियाँ और उनके अभिलेख। प्रथम किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ? तो यह सब सामग्री ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी की है। दूसरे इसमें किसी भी प्रकार के प्रक्षेप आदि की सम्भावना भी नहीं है। अत: यह प्रस्तुत अध्ययन की स्रोत-सामग्री प्राचीन भी है और प्रामाणिक भी क्योकि इसकी पुष्टि अन्य साहित्यिक इस प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने हेतु हमारे पास स्रोतों से भी हो जाती है। अत: इस परिचर्चा में हमने सर्वाधिक उपयोग जो प्राचीन स्रोत-सामग्री उपलब्ध है, उसमें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी इसी सामग्री का किया है। आगम, पालित्रिपिटक और मथुरा से प्राप्त प्राचीन जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर अंकित मुनि-प्रतिमाएँ ही मुख्य हैं। श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा महावीर के पूर्व निर्धन्य-संघ में वस की स्थिति मान्य अर्धमागधी आगमों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और जैन-अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में भगवान् महावीर दशवकालिक ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें इस चर्चा का आधार बनाया जा से पूर्व तेईस तीर्थङ्कर हो चुके थे। अतः प्रथम विवेच्य बिन्दु तो यही सकता है, क्योंकि प्रथम तो ये प्राचीन (ई०पू० के) हैं और दूसरे है कि अचेलता के सम्बन्ध में इन पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की क्या मान्यताएँ इनमें हमें सम्प्रदायातीत दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। अनेक पाश्चात्य थीं? यद्यपि सम्प्रदाय-भेद स्थिर हो जाने के पश्चात् निर्मित ग्रन्थों में विद्वानों ने भी इनकी प्राचीनता एवं सम्प्रदाय-निरपेक्षता को स्वीकार जहाँ दिगम्बर-ग्रन्थ एक मत से यह उद्घोष करते हैं कि सभी जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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