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________________ से निवृत्ति और संयम में प्रवृति है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि बबट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। उसका यह कहना कि वर्तमान युग में संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का हास है, जैन दर्शन को स्वीकार है। वस्तुतः आत्मसंयम और अनुशासन आज के युग की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसे इन्कार नहीं किया जा सकता। न केवल जैन दर्शन में वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शन में भी संयम और अनुशासन के प्रत्यय को आवश्यक माना गया है। भारतीय नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय एक ऐसा प्रत्यय है जो सभी आचार- दर्शनों में और सभी कालों में स्वीकृत रहा है संयमात्मक जीवन भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है बबिट का यह विचार भारतीय चिन्तन के लिए कोई नया नहीं है। सन्दर्भ : १. २. ४. ५. देखिये (अ) समकालीन दार्शनिक चिन्तन, डॉ० हृदयनारायण मिश्र, पृ० - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन दर्शन ३००-३२५। (4) कन्टेम्परेरि एथिकल थ्योरीज, पृ० १७७-१८८१ (अ) माणुस्सं सुदुल्ल उत्तराध्ययनसूत्र । (ब) भवेषु मानुष्यभव: प्रधानम् । अमितगति । (स) किच्चे पटिलाभो । मणुस्स (द) गुहां तदिदं ब्रवीमि । धम्मपद, १८२ । न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् । आचाराङ्ग, ११/३| सूत्रकृताङ्ग, १/८/३। Jain Education International - महाभारत शान्तिपर्व, २९९/२० । समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपरोक्त तीनों सिद्धान्त यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत रहे हैं तथापि भारतीय विचारकों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप में स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में, बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया गया है। फिर भी गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के इस विविध साधना पथ में समाधि आत्मचेतनता का, प्रज्ञा विवेक का और शील संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यग्ज्ञान विवेक का और सम्यक्चरित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. धम्मपद, २/१ 1 सौन्दरनन्द, १४/४३-४५ । २/६३ । गीता, देखिये (अ) कण्टेम्परेरि एथिकल थ्योरीज़ पृ० १८१-१८४। सी० बी० गर्नेट । (ब) विज़डम ऑफ कण्डक्ट दशवैकालिक, ४/८/ बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिये (अ) कण्टेम्परेर एथिकल थ्योरीज, पृ० १८५ १८६४ (ब) दि ब्रेकडाउन ऑफ इण्टरनेशनलिज्म । दशवैकालिक, १ / १ । उत्तराध्ययन, ३१ / २। [ ९९ ] mnan · For Private & Personal Use Only प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) १९१५ । www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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