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________________ ज्ञान के प्रमाणों में प्रत्यक्ष के बाद अनुमान का ही स्थान है। परोक्ष प्रमाणों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भारतीय दर्शन में मात्र चार्वाक को छोड़कर अन्य सभी शाखाओं ने इसे मान्यता दी है। मुनि नथमलजी के शब्दों में-"अनुमान तर्क का कार्य है। तर्क द्वारा निश्चित नियम के आधार पर यह उत्पन्न होता है । .... तर्कशास्त्र के बीज का विकास अनुमानरूपी कल्पतरु के रूप में होता है। 'अनु' और 'मान' के मिलने से अनुमान शब्द बनता है। 'अनु' का अर्थ होता है 'पश्चात्', 'बाद' तथा 'मान' का अर्थ होता है 'ज्ञान'। इस प्रकार किसी पूर्व ज्ञान के बाद होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। महर्षि गौतम ने इसीलिए कहा है--'तत्पूर्वकम् ' तत्' से तात्पर्य है - प्रत्यज्ञ ज्ञान। जो ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद उत्पन्न हो उसे अनुमान कहते हैं। पहाड़ पर अग्नि है क्योंकि पहाड़ पर धूम है जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है जैन- तर्क में अनुमान धू इसलिए उस पहाड़ पर अग्नि है। p धूम के साथ अग्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पहले से प्राप्त है और उसी आधार पर धूम को पहाड़ पर देखकर यह अनुमान किया जा रहा है कि वहाँ अग्नि भी है। अनुमान शब्द की यह व्युत्पत्ति दो रूपों में मानी जाती है-- (१) अनुमिति: अनुमान् तथा (२) अनुमीयते अनेन अति इनुमानम् । प्रथम प्रक्रिया में अनुमान शब्द भाव रूप में अनुमिति प्रमाण के लिए आता है तथा द्वितीय प्रक्रिया में वह करण रूप में होता है और अनुमान प्रमाण के लिए आता है। Jain Education International For Private है - ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना (To go From Known Unknown)। अनुमान को पाश्चात्य तर्कशास्त्र में ऐसा महस दिया गया है कि पूरे तर्कशास्त्र पर यही छाया हुआ है। अंग्रेजी में अनुमान के लिए इन्फेरेन्स (Inference) शब्द आता है। इन्फर (Infer) से इन्फेरेन्स शब्द बनता है। इन्फर का अर्थ होता है - अनुमान करना, तर्क करना, निर्णय करना, निर्णय पर आना आदि। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में अनुमान से समझा जाता মটমট ३९] डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी...." अनुमान के संबंध में एक समस्या उठ खड़ी होती है. प्रत्यक्ष के अतिरिक्त स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि जितने भी ज्ञान हैं, वे सभी प्रत्यक्ष के बाद ही प्राप्त होते हैं, फिर भी इन्हें भिन्न-भिः। नामों से संबोधित किया जाता है। इन्हें भी अनुमान की संज्ञा क्यों नहीं दी जाती है? आखिर वह कौन सा पूर्व ज्ञान है जिसक कारण कुछ ज्ञान तो अनुमान की कोटि में रखे जाते हैं और अन्य के लिए विभिन्न नाम प्रस्तुत किए जाते हैं । वात्स्यायन । अनुमान पर प्रकाश डालते हुए कहा है मितेन लिंगे। लिंगिनोऽर्थस्य पश्चान्मानमनुमान् । अर्थात् प्रत्यक्ष से प्राप्त लिंग और लिंगी के ज्ञान के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे अनुमान कहते हैं। इससे इतनी जानकारी होती है कि लिंग--दर्शन और फिर लिंगी को समझना ही वह ज्ञान है जिससे अनुमान होता वह ऐसा पूर्व ज्ञान है जिसके कारण अनुमान किया जाता है। यह बात जैनाचार्य वादिराज के द्वारा अनुमान प्रतिपादन से स्मार होती है । 'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद्भाविमानमनुमानम् । ' इसी के आधार पर डा. कोठिया ने कहा है- यद्यपि पारम्पर्य से उन्हें (लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण तथा पक्षधर्म ॥ ज्ञान को भी अनुमान का जनक माना जा सकता है पर अनुमान अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान व्याप्तिनिश्चय ही है, क्योंकि उन्हें अव्यवि उत्तरकाल में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है । जैन परंपरा में प्रतिपादित अनुमान को अच्छी तरह समझन के लिए अन्य परंपराओं द्वारा विवेचित अनुमान को समझना ॥ उचित जान पड़ता है, क्योंकि इससे विषय को स्पष्टता प्राप्त होती है, तुलनात्मक दृष्टि से समानता-असमानता का बोध होता है । अतः पहले भारतीय दर्शन की जैनेतर शाखाओं की अनुमान की परिभाषा संबंधी मान्यताओं को देखें- 6ট के भ Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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