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________________ - वतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन उत्पन्न होता है, वे परमाणुओं के मिलने से बने हुए हैं। अन्य ही जघन्य गुण वाले हों। यदि उन दोनों में से कोई एक परमाणु परमाणुवादी वैशेषिकों और ग्रीक दार्शनिकों ने ऐसा नहीं माना है। जघन्य गुणवाला और दूसरा अजघन्य (उत्कृष्ट) गुण वाला होगा . जैन-परमाणुवाद के अनुसार परमाणु जघन्य और उत्कृष्ट तो बन्ध हो जाएगा। की अपेक्षा दो प्रकार होता है। पंचास्तिकाय तात्पर्यवृद्धि में तीसरे नियम के संबंध में भी दिगम्बरों की मान्यता है कि द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु की अपेक्षा परमाणु दो प्रकार दो परमाणुओं में चाहे वे सदृश (समान जातीय ) हों या विसदृश का और भगवतीसूत्र में द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु (असमान जातीय ) हों बन्ध तभी होगा जबकि एक की अपेक्षा और भाव परमाणु की अपेक्षा चार प्रकार का बतलाया गया है। दूसरे में स्निग्ध या रूक्षत्व दो गुण अधिक हों। तीन-चार, पाँचग्रीक और वैशेषिक परमाणुवाद में इस प्रकार के भेद दृष्टिगोचर संख्यात-असंख्यात अधिक गुण वालों के साथ कभी भी बन्ध नहीं होते हैं। नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में केवल एक अंश परमाणओं का परस्पर संयोग - जैन-परमाणवाद के अधिक होने पर दो परमाणुओं में बन्ध का अभाव बतलाया अनुसार दो या दो से अधिक परमाणुओं का परस्पर बन्ध गया है। दो, तीन, चार आदि अधिक गुण होने पर दो सदृश (संयोग) होता है। यह संयोग स्वयं होता है. इसके लिए वैशेषिकों परमाणुआ मे बन्ध हो जाता है। की तरह ईश्वर जैसे शक्तिमान की कल्पना नहीं की गई है। जैन जैन-परमाणुवाद में इस शंका का भी समाधान उपलब्ध परमाणुवादियों ने परमाणु-संयोग के लिए एक रासायनिक प्रक्रिया है कि परमाणुओं का परस्पर संयोग होने के बाद किस परमाण प्रस्तुत की है, जो निम्नांकित है-- का किस में विलय हो जाता है? दूसरे शब्दों में कौन परमाणु (१) पहली बात यह है कि स्निग्ध या रूक्ष परमाणओं किसको अपने अनुरूप कर लेता है? इस विषय में उमा स्वाति का परस्पर में बन्ध होता है। का मत है कि परमाणुओं का परस्पर बन्ध होने के बाद अधिक गुण वाला कम गुण वाले परमाणु को अपने स्वभाव अनुरूप (२) दूसरी बात यह है कि जघन्य अर्थात् एक स्निग्ध या कर लेता है५२। रूक्ष गुण वाले परमाणु का एक, दो, तीन आदि स्निग्ध, रूक्ष वाले परमाणु के साथ बंध नहीं होता है। उपर्युक्त मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में मान्य है। लेकिन दोनों में एक भेद यह है कि श्वेताम्बर परंपरा (३) समान गुण वाले सजातीय परमाणुओं का परस्पर में मान्य सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र.३ में इस विषय में एक बन्ध नहीं होता है, जैसे दो स्निग्ध गुण वाले परमाणु का दो यह भी नियम बतलाया गया है-- स्निग्ध गुण वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार रूक्ष गुणवाले परमाणुओं के बन्ध का नियम है। (१) श्वेताम्बर मत में गुणगत-विसदृश परमाणुओं का भी बंध माना गया है। अतः जब दो परस्पर बंध वाले परमाणुओं (४) चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दो गुण अधिक __ में गुण-गत विसदृशता रहती है तो कोई भी सम परमाणु दूसरे सजातीय अथवा विजातीय परमाणुओं का परस्पर में बन्ध हो । सम वाले परमाण को अपने अनुरूप कर सकता है। अकलंकभट्ट५४ जाता है। दो से कम और दो से अधिक परमाणु का परस्पर में ने इस नियम को आगम विरुद्ध बतलाकर निराकरण किया है। र बंध नहीं होता है। उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों उपर्युक्त परमाणुओं की परस्पर संयोग-प्रक्रिया के संबंध . और चिन्तकों ने परमाणु का जितना सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत में जैन दर्शन की दिगंबर और श्वेताम्बर परंपराएं ५१ एकमत किया उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वैज्ञानिकों का परमाणुवाद नहीं हैं। दिगम्बर परंपरा की मान्यता है कि यदि दो परमाणुओं में - भी बहुत कुछ जैन-परमाणुवाद से साम्य रखता है। इस पर और से कोई एक भी परमाणु जघन्य गुण अर्थात् निकृष्ट गुणवाला है भी तुलनात्मक शोध आवश्यक है। तो उनमें कभी भी बन्ध नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में दो परमाणुओं में परस्पर में संयोग तभी नहीं होगा जब वे दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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