SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य या नैषेधिकी में दी जाती थी, क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर नि!हण भी प्रत्याख्यान पूर्व से हुआ। इसीलिए कालान्तर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाएँ।११ में निर्यहणकर्ता के रूप में भद्रबाह का नाम निशीथ के छेदसूत्रों का कर्तृत्व साथ भी जुड़ गया। विंटरनिट्स ने निशीथ को अर्वाचीन माना है तथा इसे छेदसूत्र पूर्वो से निर्मूढ हुए अतः इनका आगम-साहित्य में । संकलित रचना के रूप में स्वीकृत किया है।२० महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ - इन चारों छेदसूत्रों का नि!हण प्रत्याख्यान पूर्व की विद्वानों के द्वारा कल्पना की गई है कि निशीथ का निर्ग्रहण तृतीय आचारवस्तु से हुआ, ऐसा उल्लेख नियुक्ति एवं भाष्य विशाखगणि द्वारा किया गया, जो भद्रबाहु के समकालीन थे। साहित्य में मिलता है।९२ दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्ग्रहण दशाश्रुतस्कंध के नि!हण के बारे में भी एक प्रश्नचिन्ह भद्रबाहु ने किया, यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है।१३ किन्तु उपस्थित होता है कि इसमें महावीर का जीवन एवं स्थविरावलि निशीथ के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ है, अतः यह पूर्वो से उद्धृत कैसे माना जा सकता है? इस प्रश्न विद्वान् निशीथ को भी भद्रबाहु द्वारा निर्मूढ मानते हैं, लेकिन यह के समाधान में संभावना की जा सकती है कि इसमें कुछ अंश बात तर्क-संगत नहीं लगती। निशीथ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु बाद में जोड़ दिया गया हो। द्वारा नियूढ कृति नहीं है, इस मत का पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत छेदसत्रों का निर्यहण क्यों किया गया. इस विषय में भाष्य किए जा सकते हैं - -साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति एवं पंचकल्प भाष्य में भद्रबाहु नौवाँ पूर्व सागर की भाँति विशाल है। उसकी सतत् स्मृति में की दशा, कल्प एवं व्यवहार - इन तीनों सूत्रों के कर्ता के रूप में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो वंदना की है, वहाँ आचारप्रकल्प निशीथ का उल्लेख नहीं है।१४ जाता है।२१ जब भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, - व्यवहार-सत्र में जहाँ आगम-अध्ययन की काल-सीमा सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी तब चारित्र के निर्धारण का प्रसंग है, वहाँ भी दशाश्रुत, व्यवहार एवं की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार कल्प का नाम एक साथ आता है।१५ आवश्यकसूत्र में का नि!हण किया गया।२२ इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार भी इन तीन ग्रन्थों के उद्देशकों का ही एक साथ उल्लेख कहते हैं कि चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का मिलता है।९६ निशीथ को इनके साथ न जोड़कर पृथक् अभाव हो जाएगा, अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं उल्लेख किया गया है। चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रन्थों का निर्गृहण किया।२३ श्रुतव्यवहारी के प्रसंग में भाष्यकार ने कल्प और व्यवहार चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि भद्रबाहु ने आयुबल, इन दो ग्रन्थों तथा इनकी निर्यक्तियों के ज्ञाता को धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार श्रुतव्यवहारी के रूप में स्वीकृत किया है। वहाँ निशीथ/ का नियूँहण किया, किन्तु आहार, उपाधि, कीर्ति या प्रशंसा आचारप्रकल्प का उल्लेख नहीं है।१८ निशीथ की महत्ता- आदि का न आदि के लिए नहीं।२४ सूचक अनेक गाथाएँ व्यभा. में हैं, पर वे आचार्यों ने बाद निर्वृहण को प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार में जोड़ी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उत्तरकाल में कहते हैं - जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर निशीथ बहुत प्रतिष्ठित हुआ है। अन्यथा कल्प और व्यवहार फूल इकट्ठे करने में कुछ व्यक्ति असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों के साथ भाष्यकार अवश्य निशीथ का नाम जोड़ते। पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है . निशीथ का नि!हण भद्रबाहु ने किया, यह उल्लेख केवल और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार पंचकल्पचर्णि में मिलता है।१९ इसका कारण संभवतः चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाह ने आरोहण किया और यह रहा होगा कि अन्य छेदग्रन्थों की भांति निशीथ का अनुकम्पावश छेदग्रन्थों का संग्रथन किया। इस प्रसंग में भाष्यकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy