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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व थराव का मार्ग काफी लम्बा था और मार्ग निर्विघ्न भी नहीं था। मार्गवर्ती ग्राम नगरों में धर्म प्रचार करते हुए। विश्राम लेते हुए आपश्री की बिहार यात्रा सानन्द चल रही थी। अपने बिहार क्रम में आपश्री बागोड़ा पधारे। बागोड़ा श्रीसंघ ने अपने गुरुदेव का भावभीना स्वागत कर अच्छी गुरुभक्ति का परिचय दिया। बागोड़ा से लगभग बीस किलोमीटर की दूरी पर मोरसिम नामक गाँव है। इन दोनों ग्रामों के श्री संघों में लगभग सत्तर वर्ष से वैमनस्य चला आ रहा था। झगड़ा इतना बढ़ गया था कि मोहन व्यवहार भी बन्द हो गया था। जब आचार्य भगवंत के सम्मुख यह बात आई तो आपश्री ने दोनों संघों के एकत्र करने समझाया और वैमनस्य त्यागने का परामर्श दिया। दोनों संघों ने आपश्री के परामर्श को मान लिया। दोनों पक्षों की बातों को सुनकर आपश्री ने निष्पक्ष भाव से अपना निर्णय सुना दिया। दोनों संघों ने आपश्री के निर्णय को शिरोधार्य कर आपसी कलह को समाप्त कर दिया। इससे दोनों संघों में हर्षोल्लास का वातावरण व्याप्त हो गया। यहां आपश्री ने अपने संघ नायकत्व को सार्थक किया। दोनों संघ की ओर से काडता ग्राम में अलग-अलग स्वामीवात्सल्य हुए। आपश्री को यहां दो दिन ठहरना पड़ा था। भाण्डवपुर से थराव का मार्ग रेतीला है। इस मार्ग से विहार करने में काफी कठिनाई आती है। फिर आपश्री की शारीरिक स्थिति भी विहार के अनुकूल नहीं थी । ऐसी स्थिति में आपश्री के शिष्य आपश्री को डोली में बिठाकर चलते थे। जब आपश्री साचोर पधारे तो यहां भी उत्साह और उमंग का वातावरण हो गया। साचोर में श्रीसंघ में फूट पड़ी हुई थी। आपश्री का जब पदार्पण हुआ तो दोनों पक्षों ने मिलकर धूमधाम से नगर प्रवेश करवाया। दोनों पक्षों की ओर से स्वामीवात्सल्य भी हुआ। आपश्री के प्रभाव से यहां भी संघ में एकता स्थापित हो गई। साचोर के विहार कर मार्गवर्ती ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए आपश्री यथा समय वर्षावास हेतु थरावघ पधारे। आपके आगमन से हर्षोल्लास छा गया। यहां के गुरुभक्तों ने अति उत्साह के साथ अपनी परम्परा के अनुसार समारोहपूर्वक धूमधाम से आपश्री का नगर प्रवेश करवाया। विभिन्न धार्मिक क्रियायें और तपाराधना के साथ वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ। थराव वर्षावास का मुख्य उद्देश्य प्रतिष्ठाजनशलाका करवाना था। मुर्हृत्त का माघ शुक्ला ६ की निश्चित मुहूत्त में प्रतिष्ठांजन शलाका का कार्य सम्पन्न हुआ। प्रतिष्ठा के अंतिम दिन आचार्य भगवन् एकाएक असह्य ज्वर से ग्रसित हो गये। सम्भवतः अतिशय थकान के कारण ज्वर आ गया हो। यह ज्वर निमोनिया में परिवर्तित हो गया। श्रीसंघ थराव ने अपने आपको आपश्री की सेवा में समर्पित कर दिया। समुचित उपचार होने से आपश्री स्वस्थ्य हुए। पूर्ण रूप से स्वस्थ्य होने पर आपश्री ने अपने शिष्य परिवार के साथ वैशाख कृष्णा अष्टमी संवत २००१ को थराव से मारवाड़ की ओर विहार कर दिया। मार्गवर्ती ग्रामों में जिनवाणी का अमृतपान करते हुए आपश्री का नाऐल और वाघाहन में पदार्पण हुआ। आपश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर दोनों गांवों के ठाकुरों ने मांस-मदिरा का आजीवन त्याग किया। बांकड़ाऊ पधारे तो यहां के कृषकों ने आपश्री के उपदेश से प्रभावित होकर सूड़ (खेतों में एकत्र किया हुआ कचरा, जिसमें असंख्य जीव छिपे हुए रहते हैं) को जलाने का त्याग किया। जाखए में दो जोड़ ने आजीवन शीलव्रत ग्रहण किया। बाली (सांचोर) में भी दो पक्ष थे। आपश्री के उपदेश से दोनों में एकता स्थापित हुई और यहां आपश्री के कर कमलों से प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुआ। [१२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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