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________________ -यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व अहसास ही नहीं हआ कि थराव में यह निरन्तर दूसरा वर्षावास है। थराव में माघ शुक्ला अष्टमी सं. २००५ को मुनि श्री रसिक विजयजी म. को दीक्षाव्रत प्रदान किया गया। वि.सं. २००० का वर्षावास बाली में व्यतीत किया। यहां मार्गशीर्ष माह में प्रतिष्ठा जनशलाका का कार्यक्रम सम्पन्न कर आपश्री ने विहार किया और ग्रामानुग्राम धर्मप्रचार करते हुए आपश्री खिमेव होते हुए गूढ़ा पधारे। आपश्री की प्रेरणा से यहां ज्ञान भण्डार की स्थापनाकिए भवन निर्माण करने का निश्चय किया। इस ज्ञान भण्डार की स्थापना का उद्देश्य आपश्री द्वारा प्रकाशित एवं संग्रहीत विपुल साहित्य को सुरक्षित रखना था। वि.सं. २००७ का वर्षावास आपश्री ने गूढा बालोतान में किया। ऊपर उल्लेख किया जा चुका था कि यहां एक ज्ञान भण्डार के लिए भवन निर्माण करने का निश्चय किया गया। इस निश्चय के अनुरूप यहां भी श्री यतीन्द्र जैन ज्ञान भण्डार मंदिर का निर्माण किया गया। साहित्य को सुरक्षित एवं चिरस्थायी रखने के लिए गूढ़ा के श्रीसंघ का यह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय प्रयास था। इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य समस्त सामान्य धार्मिक कार्य भी सम्पन्न हुए। वर्षावास के पश्चात् आपश्री विहार करने वाले थे किन्तु यहां के गुरुभक्त वशिस्थानक तप उद्यापन तथा प्रतिष्ठा करवाना चाहते थे। अतः गुरुभक्तों के आग्रह से आपश्री को ठहरना पड़ा। ये दोनों कार्यक्रम सम्पन्न होते होते फाल्गुन मास आ गया। आपश्री विहार करने ही वाले थे कि आपको असह्य मूत्रावरोध वेदना उत्पन्न हो गई। तत्काल उपचार प्रारम्भ करवाया गया। स्वस्थ्य होने के बाद यहां से विहार कर दिया। मार्गवर्ती ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए आपश्री मँगएवा पधारे। मेंगएवा से आपश्री माणुवपुर तीर्थ पधारे। माण्डवपुर में एक भी जैन परिवार नहीं था। वहां की अजैन जनता ने आपश्री का हार्दिक स्वागत किया। श्री भाण्डवपुर के ठाकुर साहब ने नंगे पैर अपने कुछ साथियों के साथ लगभग दो किलोमीटर आगे आकर आचार्य भगवन् एवं मुनि मण्डल की अगवानी की एवं दर्शन लाभ प्राप्त किया। आपश्री भाण्डवपुर में तीन दिन विराजमान रहे। भाण्डवपुर में उस क्षेत्र की अजैन जनता का आपके प्रति श्रद्धाभाव उस समय देखने को मिला जब उसने आपके समक्ष वर्षावास का प्रस्ताव रखा और समस्त व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी स्वीकार किया। उसके श्रद्धाभाव और सरल व्यवहार को देखकर प्रत्येक दर्शक मुग्ध था। आचार्य भगवन् का आगामी वर्षावास कुछ विशिष्ट कारणों से थराव होना निश्ति हुआ। दि. १३.६.१९५१ को थराव के लिये यहां से विहार कर दिया। थराव में वर्षावास स्वीकृत करने का कारण यह था कि वहां एक प्राचीन कायोत्सर्गस्थ प्रतिभा भूगर्भ से निकली थी, उसकी प्रतिष्ठा तथा कुछ अन्य प्रतिमाओं की अंजनावस्था प्रतिष्ठा सम्पन्न करनी थी। थराव श्रीसंघ यह प्रतिष्ठोत्सव अपने आराध्य गुरुदेव के करकमलों से ही सम्पन्न करवाना चाहता था। अस्तु थराव में वर्षावास करने की स्वीकृति प्रदान करना पड़ी थी। जागा र कुछ अस्वस्थता के कारण कमजोरी और कुछ शरीर का स्थूल होना। इअन कारणों से अब आचार्य भगवन यदि थोड़ा भी शारीरिक श्रम करते तो थक जाया करते थे। विहार करने में भी कष्ट का अनुभव होता था, किन्तु आपश्री की प्रबल इच्छाशक्ति से सब कार्य सुगम होते जा रहे थे। माण्डवपुर से సంతinorinthiandroinevinodandardrovindaranoindrannounc ement Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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