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________________ सम्पादकीय आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्वे. मूर्तिपूजक त्रिस्तुतिक संघ के मूर्धन्य आचार्य रहे हैं। आपने-अपने संयमी जीवन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुणों का प्रकर्षता के साथ परिपालन किया। आपकी दीक्षा शताब्दी के उपलक्ष में आपकी संयमपर्याय के अनुमोदनार्थ आपके प्रबुद्ध शिष्य ज्योतिषाचार्य मुनि पुंगव श्री जयप्रभविजयजी श्रमण ने एक दीक्षा शताब्दी स्मृति ग्रंथ के प्रकाशित करने की योजना प्रस्तुत की और उसके सम्पादन का दायित्व मुझे सौंपा। उन सतपुरुष की संयम पर्याय के अनुमोदनार्थ प्रस्तुत योजना को क्रियान्वित करने का दायित्व तो मैंने स्वीकार कर लिया, किन्तु सेवानिवृत्ति के पश्चात विद्यानगरी वाराणसी से सुदूर शाजापुर जैसे छोटे से नगर में बैठकर यह कार्य कर पाना कठिन प्रतीत हुआ। उसमें में भी बढ़ती हुई वय और गिरता हुआ स्वास्थ्य बाधक ही प्रतीत हो रहे थे। किन्तु मुनिप्रवर जयप्रभविजयजी की सतत प्रेरणा और प्रोत्साहन ने ही इसे इस रूप में पूर्ण कर पाना संभव बनाया है। इस सबमें उनका दृढ़ निश्चय और सतत प्रेरणा मेरे श्रय की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। 15 जैन धर्म में किसी कार्य को करने और कराने की अपेक्षा उसके अनुमोदन को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। पू. आचार्य प्रवर की संयमपर्याय की अनुमोदना का मेरी दृष्टि में इससे अच्छा कोई अन्य उपक्रम नहीं हो सकता था। क्योंकि त्रिस्तुतिक धर्म संघ अपने जन्म से ही ज्ञान और विवेक पर अधिक बल देता रहा है। उसके प्रथम आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी की ज्ञान साधना का सबसे बढ़ा प्रमाण उनके द्वारा अभिधान राजेन्द्र कोष जैसे अति विशाल सप्त खंडात्मक विश्वकोष की रचना ही है। आज जब जैन विद्या के क्षेत्र में नए पुराने अनेक ग्रंथों का प्रणयन और प्रकाशन हो चुका है। फिर भी इस महाकोश की कोई तुलना नहीं है। ऐसी विद्या-उपासक परंपरा के प्रबुद्ध आचार्य, जिनका नाम स्वतः यतीन्द्र अर्थात संयमियों में सर्वश्रेष्ठ रहा है, उनकी संयम पर्याय की अनुमोदना में दीक्षा शताब्दी स्मृति ग्रंथ प्रकाशन से अच्छा कोई उपक्रम नहीं हो सकता था। अतः मैंने इस दायित्व को स्वीकार करना उचित समझा है। “दीक्षा" व्यक्ति का सन्मार्ग की यात्रा में रखा वह प्रथम चरण है, जो उसके जीवन के चरमसाध्य की उपलब्धि पर ही विराम लेता है। दीक्षा एक संस्कार है, जो संस्कृति को जन्म देता है और संस्कृति ही वह तत्व है जो व्यक्ति और समाज को विकृति से बचाती है। अतः इस दीक्षा शताब्दी स्मृतिग्रंथ में जैन संस्कृति का यथा शक्य सम्पूर्णता के साथ परिचय देना ही हमारा लक्ष्य रहा है। अतः प्रस्तुत कृति में जैन धर्म और संस्कृति के सभी पक्षों से संबंधित सामग्री पाठकों को प्रदान करना हमारा लक्ष्य रहा है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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