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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - कोरों में स्पष्टतया प्रतिबिम्बित हो रहा था। आचार्यश्री के इस आन्तरिक आशीर्वाद को शिरोधार्य कर प्रथम दर्शन में ही मैंने अपने भाग्य की भरि-भूरि प्रशंसा की। य यद्यपि आचार्य श्री जैसे परम विद्वान् निखिलागममर्मज्ञ साहित्यधुरन्धर के सम्मुख मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के पांडित्य का परिचय देना साहस के परे था, साथ ही अशोभनीय भी; तथापि बाल-सुलभ धृष्टता का मैंने परित्याग नहीं किया एवं 'हारबन्ध' के 'कलशबन्ध' एवं विविध गुणगणाष्टकों के रूप में आचार्यश्री के सुयोग्य पट्टशिष्य कविवर मुनि श्री विद्याविजयजी के द्वारा मैं अपनी संचित योग्यता के पृष्ठ खोल-खोलकर उनके सामने प्रस्तुत करता ही रहा। परिणामत: आचार्य ने अपनी असीम गुणग्राहिता का परिचय देते हुए मेरी योग्यता को बल, प्रश्रय एवं प्रोत्साहन ही नहीं दिया अपितु उचित पथ-प्रदर्शन एवं सहृदयता के साथ सराहा भी। आचार्यश्री की इस अकल्पित अनुकम्पा और अपूर्व अनुग्रह ने मुझे और अधिक अग्रसर किया फलत: संस्कृत साहित्य के साथ ही हिन्दी साहित्य की ओर भी प्रवृत्त होने में मुझे विलम्ब नहीं हुआ। आज इस लेखनी द्वारा जो कुछ हिन्दी साहित्य में लिखा जाता है, उसका सम्पूर्ण श्रेय आचार्यश्री को ही है, जिनके तत्त्वावधान में मुझे कई साहित्यिक कार्यों का सम्पादन करने का सुअवसर प्राप्त होता रहा। ___ वस्तुत: आचार्यश्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी महाराज वर्तमान युग के महान् सन्त, तपपूत साधक, अद्वितीय साहित्यकार, उच्च कोटि के विद्वान एवं प्रतिभाशाली प्रखर वक्ता हैं। जिनकी पंडित्यमयी प्रतिभा के प्रकाश में न केवल त्रिस्तुतिक जैनमत अपितु सम्पूर्ण जैन जगत् प्रकाशित हो रहा है। यही नहीं आचार्य जैसे उत्तरदायित्व पद का निर्वहण करते हुए आप जहाँ अपने आध्यात्मिक सदुपदेशों द्वारा जनता का कल्याण करते हैं, वहीं आपने कई ग्रन्थों की रचना कर साहित्यिक उपकार भी किया है। वृद्धावस्था में पदार्पण करने पर आज भी निरन्तर धाराप्रवाह रूप में आपकी लेखनी चल रही है, जिसके द्वारा साहित्य विशेषतः हिन्दी साहित्य श्रीसम्पन्न होता जा रहाहै। हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि आध्यात्मिक सदुपदेशों के साथ आपकी यह मंगलमयी लेखनी चिरकाल तक चलती रहे। त्रिस्तुतिक श्री संघ ने आचार्य श्री मद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की दीक्षाशताब्दी मनाने एवं दीक्षाशताब्दी स्मारक ग्रन्थ निकालने का निर्णय सुन अति प्रसन्नता हो रही है। कि एक महान् साहित्यकार जैन धर्म के प्रकाण्ड पण्डित के यशस्वी जीवन की स्मृतियाँ भावी पीढ़ी की मार्गदर्शक हों । समाज का यह कर्तव्य भी था कि ऐसे आचार्यवर्य का दीक्षा शताब्दी ग्रन्थ निकाल कर उन का ज्ञान जन-जन के तक प्रसारित किया जाय ताकि वह आत्मकल्याण में सहायक हो। नधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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