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________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व योग और शुभ संयोग का ही यह महात्म्य एवं प्रभाव था कि दर्शनौत्सुक्य से परिपूर्ण अधीरता ने धीरता का रूप धारण किया और फलस्वरूप चातुर्मासिक आवास करने के हेतु आचार्यश्री द्वारा आहोर पदार्पण करने पर मुझे अनायास ही उन प्रथम पुण्य दर्शनों का सुखमय सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसकी मैंने अपने जीवन के किसी भी जाग्रत अथवा स्वप्निल क्षण में कल्पना भी नहीं की थी। वि.सं. २००१ का वर्ष प्रारम्भ हो चुका था। अपने शिशु-जीवन के तीन मास भी पार कर लिए थे। इधर आषाढ़ की अंधियारी अमाँ भी विदा ले रही थी कि आचार्य श्री के पदार्पण की शुभ सूचना ने नगर के स्थावर-जंगम, अर्थात् जन-जन के मन-मन में व थल-थल के कण-कण में नवीन जागृति, नवीन स्फूर्ति, नवीन उत्साह, नवीन उमंग एवं श्रद्धान्वित नवीन उत्सुकता का व्यापक एवं सफलसंचार कर दिया। नगर के विविध स्थानों पर विविध प्रकार के दिव्य-भव्य एवं सरस-सुन्दरतम स्वागत आयोजनों के रूप में आचार्यश्री के प्रति नगरवासियों की श्रद्धा उमड़ रही थी। सभी चातक वन आचार्यश्री के दर्शनों के लिए उत्सुक थे। अंतत: कोटि-कोटि पिपासित नयनों को निज दर्शन रूपी रसवृष्टि से संतृप्त करते हुए आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी शुक्रवार को आचार्यश्री ने शिष्यसमुदाय सहित नगर में पदार्पण किया। स्वागत के समय नगर की शोभा एवं नागरिकों की श्रद्धा अवर्णनीय थी। जिस समय आचार्यश्री का स्वागत-समारोह, चलसमारोह के रूप में दृष्टिगत हो रहा था, उस समय की समस्त दृश्यावली को मैं चलचित्र की भाँति अपलक नयनों से निहारता ही रहा। यही मेरे जीवन की शुभ संयोगमयी तथा स्वर्णमयी सुन्दर बेला थी, जिसमें मैंने शिष्यसमुदाय सहित आचार्यश्री के जीभर प्रथम पुण्य दर्शन किए। श्रवणों ने तो आचार्यश्री के गुणों का रसास्वादन कर रखा था, किन्तु बेचारे ये निर्बल एवं असहाय नयन अभी तक तृषातुर थे, इनकी पिपासा को तृप्त करने का कोई शुभावसर नहीं आ पाया था, अतः कभी-कभी श्रवणों एवं नयनों में पारस्परिक द्वंद्व सा छिड़ता रहता था। श्रवण आचार्यश्री के जिन गुणों का वर्णन करते नयन अदर्शनवश उनका खंडन करते; किन्तु आज पुण्य दर्शन प्राप्त कर दोनों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता की इति होगई और निर्निमेष हो निहारने केपश्चात् नयनों ने अपनी धृष्टता पर खेद प्रकट किया एवं श्रवणों को धन्यवाद दिया कि उन्होंने पूर्व ही आचार्य श्री की सद्गुणावली से उन्हें परिचित कर दिया था। दोनों की प्रतिद्वंद्विता पर मन ही मन मुग्ध हो मैंने आचार्यश्री के सम्मुख पहुँच कर निवेदन किया कि - दूरेऽपि श्रुत्वा भवदीय कीर्ति, काँच तृप्तौ न तु चक्षसी में। तयोर्विवादं परिहर्तुकामः,समागतोऽहं तव दर्शनाय ।। आचार्य प्रवर ! दूर से ही अन्य व्यक्तियों एवं आपके कार्यकलापों द्वारा आप की निर्मल कीर्ति का श्रवण कर मेरे कान तो सन्तृप्त हो चुके थे, किन्तु अधीर नयन अब तक आपके दर्शनोंसे वंचित होकर अतृप्त ही थे। यही कारण था कि समय-समय पर दोनों की विवादग्रस्त स्थिति हो जाती थी। अत: आज उनका विवाद दूर करने के हेतु आपके पुण्य दर्शनों का अनुपम लाभ लेने के लिए सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।" आचार्यश्री ने उक्त निवेदन को सुनकर अपनी गंभीर, आन्तरिक एवं विशाल उदारता की समुदात्तवृत्ति का परिचय देते हुए जन-मन-मोहिनी माधुर्य-मिश्रित मन्द-मन्द मुस्कान के साथ मन ही मन यह असीम आशीर्वाद दिया, जिसका निर्मल व पावन प्रतिबिम्ब कमलोपम कोमल नयनों की कमनीय एवं सुकोमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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