SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व आदर्श हों। जितना द्रव्य भारतवर्ष ने अपने इन तीर्थ स्थानों में व्यय किया है, उसका सहस्राश भी किसी देश ने व्यय नहीं किया। माम मुहम्मद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य ध्येय इन स्थानों से द्रव्य अपहरण कर गजनी को सम्पन्न एवं समृद्ध बनाने का था। अन्य आक्रमणकारियों का भी यह ध्येय प्रधान या गौणरूप से सदा रहा है।' जैन धर्मस्थानों/ तीर्थस्थानों के सम्बन्ध में आप ने लिखा है - “जैन समाज ने अपेक्षाकृत धर्म स्थानों को विशेष महत्त्व दिया है। कला और समृद्धि दोनों दृष्टियों से स्मृति रूप से आज भी सहस्रों श्रीसंघ प्रतिवर्ष इन तीर्थों की यात्रा निकालते रहते हैं और इन तीर्थों में अपार धनराशि एकत्रित होती रहती है, जो तीर्थ-मंदिरों के जीर्णोद्धार में व्यय होती रहती है। ...... जैन तीर्थों में शिल्पकला उत्तरोत्तर निखरती रही है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव है जैन धर्मका विस्तार और स्थायित्व। ऐसे दीक्षा उपर्युक्त उद्धरण में आपश्री ने भारतीय एवं पौर्वात्य तीर्थों एवं कला के अन्तर को स्पष्ट किया है। आगे आप ने यात्रा की आवश्यकता और पारमार्थिक लाभ को स्पष्ट करते हुए श्री संघों के निष्क्रमण और लक्ष्मी के सदुपयोग पर प्रकाश डाला है। इसके साथ ही आप ने प्राचीनकाल में संघ निष्क्रमण की परम्परा का उल्लेख कर यह प्रमाणित किया है कि संघ यात्रा निकालना कोई नई परम्परा नहीं है। 'जैन धर्म की दृष्टि से मरुस्थल का महत्त्व' इस शीर्षक के अन्तर्गत आप ने इस क्षेत्र में जैन धर्म के विकास को बताया है। इसके साथ ही आप ने गोड़वाड़ (राजस्थान का एक क्षेत्र) के सम्बन्ध में लिखा है कि गोड़वाड़ प्रांत इस समय दो भागों में विभक्त है। एक देसुरी परगना और दूसरा बाली परगना। इतना लिखने के उपरांत आप ने इस क्षेत्र में समय-समय पर रहे विभिन्न वंशों के शासन का उल्लेख किया है। आप ने देसुरी और बाली के इतिहास के साथ ही कुछ भौगोलिक परिवेश का भी वर्णन किया है। इसके उपरांत आप ने गोड़वाड़ प्रांत के जैन आबादी वाले गाँवों की सारणी प्रस्तुत कर वहाँ के मूलनायकजी, धर्मशाला, उपाश्रय पोरवाल का, ओसवाल घर आदि जानकारी उपलब्ध कराई है। प्रस्तुत पुस्तक में श्री वरकाणा तीर्थ, श्री नाडोल तीर्थ, श्री नाडलोई तीर्थ, श्री सुमेर (सोमेश्वर) तीर्थ, श्री महावीर मुछाला तीर्थ, श्री राणकपुर तीर्थ के इतिहास आदि का विस्तृत वर्णन किया है। ___इन तीर्थों का इतिहास वर्तमान सन्दर्भ में भी उपयोगी है। यह इतिहास जैन तीर्थों और जैन कला पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शक का काम करने वाला है। पुस्तक के अंत में अपने गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का जीवन चरित्र तथा कुछ महत्वपूर्ण पावन प्रेरक प्रसंग भी दिए गये हैं। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि पौष शुक्ला ५,६,७के दिन पंचतीर्थी यात्रा की वापसी पर संघ का मुकाम खुड़ाला रहा। चूँकि पौष शुक्ल सप्तमी गुरुदेव की परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ भट्टारक जैनाचार्य श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि दोनों ही है और गुरु सप्तमी के रूप में आजकल न केवल सम्पूर्ण भारत में, वरन् विश्व में भी समारोहपूर्वक मनाई जाती है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy