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________________ • यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व यहाँ आप ने नेमाड़ी और हिन्दी भाषा के अंतर को स्पष्ट किया है तथा हिन्दी के अक्षर-शब्दों का माड़ी रूपांतर भी दिया है। साथ ही सर्वनाम, वर्तमान क्रिया आदि का भी विवरण दिया है। ने भौगोलिक वर्णन और भाषा-विषयक विवरण देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यश्री किसी भूगोल वेत्ता और भाषाविद् से कम नहीं थे। आप का भूगोलज्ञान और भाषाज्ञान अद्वितीय था । इतना वर्णन करने के पश्चात् आप ने नेमाड़ के कतिपय प्राचीन कस्बों का वर्णन किया है। ऐसे कस्बों में बड़वानी, बुरहानपुर, खरगोन, सिघाणा, कुक्षी, बाग, चिकलीढोला आदि का ऐतिहासिक वर्णन करते हुए तत्रस्थ जिनालयों का भी उल्लेख किया गया है। नेमाड़ के एक परगना का विवरण देते हुए आप ने बताया कि पहले यह नेमाड़ में ही सम्मिलित था। बाद में नेमाड़ से दूसरी गणना अलग होने लगी। इसमें आलीराजपुर और जोबट ये दो रियासतें हैं। तदुपरांत आप ने नीमाड़ में श्वेताम्बर तीर्थ के अन्तर्गत श्री लक्ष्मणी, तालनपुर, मांडवगढ़ का विवरण दिया है। इनमें मांडवगढ़ तीर्थ का वर्णन आपने अति विस्तार से किया है। तदुपरांत आप ने अपनी निष्पक्ष दृष्टि का परिचय देते हुए नीमाड़ में दिगम्बर सिद्ध क्षेत्रों का उल्लेख किया है। इनमें चूलगिरि (बावनगजा), सिद्धवर कूट और पावागिरि है। आप ने इनका स्थिति और कला की दृष्टि से महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। सारपूर्ण भाषा में कहें तो यह पुस्तक नेमाड़ के भौगोलिक वर्णन के साथ जैन तीर्थो और प्रमुख कस्बों का इतिहास उचित रीत्यनुसार प्रस्तुत करती है। वर्तमान सन्दर्भ में भी यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है। आज भी यह पाठकों तथा शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम है। आकार-प्रकार में लघु होने के बावजूद सामग्री की दृष्टि से किसी विशाल ग्रंथ से कम नहीं है। ऐसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक का प्रणयन कर आचार्यश्री ने पाठकवर्ग और शोधकर्ताओं पर उपकार ही किया है। (६) मेरी गोड़वाड़ यात्रा - यह पुस्तक मेरी नेमाड़ यात्रा की भाँति ही है। इसका प्रकाशन सन् १९४४ में हुआ था। इसके प्रारम्भ में 'इतिहास में जैन तीर्थों का स्थान' शीर्षकान्तर्गत शिल्पकला और मूर्तिकला पर संक्षेप में विचार प्रस्तुत किए गये हैं। तत्पश्चात् आप ने जैनों की तीर्थ स्थापत्य कला का उत्कर्ष शीर्षकान्तर्गत लिखा है "वैसे तो धर्म-तीर्थों की स्थापना संसार में सर्वत्र मिलती है। यूरोप, अमरीका, जापान आदि देशों में भी धर्म-स्थान विशेष सुन्दर, भव्य, दीर्घकाय और कला के सजीव नमूने बने खड़े हैं, परन्तु भारत के तीर्थ स्थानों को बनाने में एक दूसरा ही ध्येय प्रधान रहा है, जो अन्यत्र संसार में कहीं गौण रूप में और कहीं नहीं भी रहा है। हमारे यहाँ तीर्थों की स्थापना से तीर्थंकरों, महापुरुषों तथा अवतारों के स्मारक बनाए रखने के साथ-साथ उससे एक और कार्य लिए जाने का ध्येय विशेष रहा है, जो अन्य देशों के धर्मस्थानों में देश कालस्थिति के प्रभाव से थोड़ी बहुत अंशों में ही स्पर्श कर सका है। वह ध्येय है वैभव, सामाजिक स्थिति, सभ्यता, गौरव, उत्थान, उच्चता और इष्ट के प्रति अपार श्रद्धाभक्ति इन धर्म स्थानों के शरीरों के प्रति रोमरोम से उद्भाषित हो। सर्वप्रधान ध्येय यह था कि ये धर्म स्थान शिल्पकला के भी अनन्यतम उदाहरण एवं Jain Education International ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ३६ For Private & Personal Use Only ramchan www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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